"समय के समक्ष ढलान पर मैं / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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भीमकाय समय के कदमों पर | भीमकाय समय के कदमों पर | ||
मैं खड़ा हूं | मैं खड़ा हूं | ||
− | हां, खड़ा ही हूं | + | हां, खड़ा ही हूं-- |
जमीन कोड़ता हुआ | जमीन कोड़ता हुआ | ||
− | और वह बरसों से वहीं खड़ा है | + | और वह बरसों से वहीं खड़ा है-- |
अपनी हथेलियों पर | अपनी हथेलियों पर | ||
भूत, भविष्य और वर्तमान | भूत, भविष्य और वर्तमान | ||
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वह कब तक यहां जमा रहेगा | वह कब तक यहां जमा रहेगा | ||
ताश खेलते हुए मवालियों पर | ताश खेलते हुए मवालियों पर | ||
− | फ़ब्तियां कसता रहेगा | + | फ़ब्तियां कसता रहेगा |
जबकि मेरे साथ ढलता जाएगा | जबकि मेरे साथ ढलता जाएगा | ||
मेरा ख्याल-- | मेरा ख्याल-- | ||
जो बाद मेरे भी | जो बाद मेरे भी | ||
बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा-- | बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा-- | ||
− | जेब में हाथ डाले | + | जेब में हाथ डाले बाबुओं के होठों पर |
तिल-तिल कर दम तोड़ रही | तिल-तिल कर दम तोड़ रही | ||
---सिगरेट की तरह। | ---सिगरेट की तरह। |
14:12, 16 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
समय के समक्ष ढलान पर मैं
भीमकाय समय के कदमों पर
मैं खड़ा हूं
हां, खड़ा ही हूं--
जमीन कोड़ता हुआ
और वह बरसों से वहीं खड़ा है--
अपनी हथेलियों पर
भूत, भविष्य और वर्तमान
की तीनों गेंदें
बारी-बारी उछालते हुए
टप-टप टपकाते हुए
और मैं हूं कि--
ढलता ही जा रहा हूं
बुरी तरह ढलता जा रहा हूं
साल-दर-साल बूढ़े होते प्लेटफार्मों पर,
बरसों से खाली पड़े खलिहानों और
पानी को तरसती नदी तल पर,
वह खड़ा है--उसी तरह
अपने सिर से आसमान भेदते हुए
अपनी काली-चमकदार मूंछों पर ताव देते हुए
या, सड़क-किनारे गुमटी के पास
गरमा-गरम चाय चुसुकते हुए
और ढल रहे लोगों के हाथ में
अखबारों की सूर्खियां पढ़ते हुए
कप की चाय के बासी होते-होते
ये सूर्खियां रोज़ धुंधलाती जाती हैं
जबकि समय
अपने कसमसाते बदन पर
टी-शर्ट और जीन्स पैंट डाले
टप-टप टपाटप टहलते हुए
ढलती ज़िन्दगियों का
ज़ायज़ा लेता जाता है
नहीं पता
वह कब तक यहां जमा रहेगा
ताश खेलते हुए मवालियों पर
फ़ब्तियां कसता रहेगा
जबकि मेरे साथ ढलता जाएगा
मेरा ख्याल--
जो बाद मेरे भी
बूढ़े लोगों के दिमाग में बना रहेगा--
जेब में हाथ डाले बाबुओं के होठों पर
तिल-तिल कर दम तोड़ रही
---सिगरेट की तरह।