भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कुदरत की लेखनी--ग़ज़ल / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 19: | पंक्ति 19: | ||
कुहासों के न्योते पर, ज़फाओं के सोते पर | कुहासों के न्योते पर, ज़फाओं के सोते पर | ||
यहां सर्द दिल का शहर लिख रही हो. | यहां सर्द दिल का शहर लिख रही हो. | ||
+ | |||
+ | हवाई पोशाकों से बदलते इलाकों से | ||
+ | युगों के निखरने का भ्रम लिख रही हो. | ||
पहाड़ों के घेरे हैं, सहरों के डेरे हैं, | पहाड़ों के घेरे हैं, सहरों के डेरे हैं, |
16:25, 17 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
कुदरत की लेखनी
नक़्शे-कदम से गज़ल लिख रही हो,
फिजाओं के घर में खिजां लिख रही हो.
खुदा के ज़माने से, खुशी के बहाने से
प्रथाएं सिमटने का गम लिख रही हो.
उम्र के तकाज़े पर, बला के ज़नाज़े पर
तलब झुर्रियों के कहर लिख रही हो.
कुहासों के न्योते पर, ज़फाओं के सोते पर
यहां सर्द दिल का शहर लिख रही हो.
हवाई पोशाकों से बदलते इलाकों से
युगों के निखरने का भ्रम लिख रही हो.
पहाड़ों के घेरे हैं, सहरों के डेरे हैं,
करम आदमी के, वतन लिख रही हो.
(रचना-काल: ०२-०६-१९९२)