भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हमेशा आदमी की ज़ात काटे/ सर्वत एम जमाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=सर्वत एम जमाल संग्रह= …)
(कोई अंतर नहीं)

20:38, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण

                  रचनाकार=सर्वत एम जमाल  
                  संग्रह=
                  }}
                  साँचा:KKCatGazal

हमेशा आदमी की जात काटे
ये चादर पाँव काटे, हाथ काटे

नई तहज़ीब जंगल शहर दरिया
मगर हमने सभी ख़तरात काटे

गुलामी, फाकामस्ती, तंगदस्ती
किसी ने कब ये एहसासात काटे

कहाँ सूरज का रोना रो रहे हो
यहाँ तो चाँद भी बस रात काटे

कोई पेड़ों को पल-पल सींचता है
कोई उट्ठे तो एक-एक पात काटे

इसी को जिन्दगी कहते हो सर्वत
कभी खुद को कभी ज़जबात काटे

____________________________