भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"चलो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Bohra.sankalp (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem> चलो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है के क्या करें हमें दू्सरे की आदत ह…) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
<poem> | <poem> | ||
− | चलो | + | चलो किइश्क़ नहीं चाहने की आदत है |
− | + | करें क्या हम कि हमें दू्सरे की आदत है | |
− | तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया | + | तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया<ref>व्यर्थ</ref> |
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है | मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है | ||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है | मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है | ||
− | तेरे नसीब में ऐ दिल सदा | + | तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी<ref>वंचितता</ref> |
− | + | न वो सख़ी<ref>दानवीर</ref> न तुझे माँगने की आदत है | |
− | विसाल में भी | + | विसाल<ref>मिलन</ref> में भी वो ही है फ़िराक़<ref>जुदाई</ref> का आलम |
− | + | कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है | |
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों | ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों | ||
− | मैं ना सुबूर उसे सोचने की आदत है | + | मैं ना-सुबूर<ref>ना-समझ</ref> उसे सोचने की आदत है |
− | ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" | + | ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे |
− | + | न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है | |
+ | </poem> |
21:47, 18 सितम्बर 2010 का अवतरण
चलो किइश्क़ नहीं चाहने की आदत है
करें क्या हम कि हमें दू्सरे की आदत है
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया<ref>व्यर्थ</ref>
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है
तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी<ref>वंचितता</ref>
न वो सख़ी<ref>दानवीर</ref> न तुझे माँगने की आदत है
विसाल<ref>मिलन</ref> में भी वो ही है फ़िराक़<ref>जुदाई</ref> का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर<ref>ना-समझ</ref> उसे सोचने की आदत है
ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है