भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक और दिन / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
  
 
यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन  
 
यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन  
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम
+
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन   
-सा दिन   
+
 
</poem>
 
</poem>

19:24, 23 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन