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"ग़रीब-ए-शहर का सर है के शहरयार का है / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर
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21:08, 24 सितम्बर 2010 का अवतरण
ग़रीब-ए-शहर का सर है के शेहरयार का है ये हम से पूछ के ग़म कौन सी कतार का है
किसी की जान का न मसला सहकार का है. यहाँ मुकाबला पैदल से शेहसवार का है.
ऐ आब-ओ-ताब-ए-सितम मशक क्यूँ नहीं करता. हमें तो शौक़ भी सेहरा-ए-बेहिसार का है.
यहाँ का मसला मिटटी की आबरू का नहीं यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख्तियार का है.
वो जिसके दर से कभी ज़िन्दगी नहीं देखि ये आधा चाँद उसी शहर-ए-यादगार का है .
ये ऐसा ताज है जो सर पे खुद पहुँचता है इसे ज़मीन पे रख दो ये खाकसार का है
ये उसके बाद है तहरीर क्या निकलती है अभी सवाल तो अपने पे इख्तियार का है