भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"खोल ना गर मुख जरा तू, सब तेरा हो जाएगा / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
यूँ निगाहों ही निगाहों में न हमको छेड़ तू | यूँ निगाहों ही निगाहों में न हमको छेड़ तू | ||
− | भोला-भाला मन हमारा मनचला हो जाएगा | + | भोला-भाला मन हमारा मनचला हो जाएगा |
+ | |||
+ | ''{ग़ज़ल के बहाने, अंक 3}'' | ||
</poem> | </poem> |
12:48, 28 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
खोल ना गर मुख ज़रा तू,सब तेरा हो जाएगा
गर कहेगा सच यहाँ तो हादसा हो जाएगा
भेद की ये बात है यूँ उठ गया पर्दा अगर
तो सरे-बाज़ार कोई माजरा हो जाएगा
इक ज़रा जो राय दें हम तो बनें गुस्ताख-दिल
वो अगर दें धमकियाँ भी, मशवरा हो जाएगा
है नियम बाज़ार का ये जो न बदलेगा कभी
वो है सोना जो कसौटी पर ख़रा हो जाएगा
भीड़ में यूँ भीड़ बनकर गर चलेगा उम्र भर
बढ़ न पाएगा कभी तू,गुमशुदा हो जाएगा
सोचना क्या ये तो तेरे जेब की सरकार है
जो भी चाहे, जो भी तू ने कह दिया, हो जाएगा
तेरी आँखों में छुपा है दर्द का सैलाब जो
एक दिन ये इस जहाँ का तज़किरा हो जाएगा
यूँ निगाहों ही निगाहों में न हमको छेड़ तू
भोला-भाला मन हमारा मनचला हो जाएगा
{ग़ज़ल के बहाने, अंक 3}