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राग बिहाग--ताल दीपचन्दी
वृच्छन से मत ले, मन तू वृच्छन से मत ले।
काटे वाको क्रोध न करहीं, सिंचत न करहीं नेह॥
धूप सहत अपने सिर ऊपर, और को छाँह करेत॥
जो वाही को पथर चलावे, ताही को फल देत॥
धन्य-धन्य ये पर-उपकारी, वृथा मनुज की देह॥
सूरदास प्रभु कहँ लगि बरनौं, हरिजन की मत ले॥
भावार्थ :- हे मेरे मन! तू वृक्षों जैसा विशाल-हृदय बन। वे अपने सींचने वाले पर प्यार नहीं लुटाते और न ही अपने काटने वाले पर कभी क्रोध करते हैं। पथिकों को छाँह देने के लिए वे सारा घाम अपने सिर पर झेलते हैं। जो उन पर पत्थर फेककर मारते हैं उनको भी वे फल ही देते हैं। हमेशा ही दूसरों का भला करने वाली यह वृक्ष-जाति धन्य है जब कि मनुष्य की देह पाकर हम इसका दुरुपयोग ही अधिक करते हैं। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर की महिमा अनन्त है और उसका बखान नहीं किया जा सकता। बस इतना ही कहा जा सकता है कि सन्तों ने जैसा कहा है, उसका अनुसरण करना चाहिए।
शब्दार्थ :- वृच्छन = वृक्षों की। वाको = उसको। और को = अन्य को। वृथा = व्यर्थ, बेकार। कहाँ लगि= कहाँ तक। बरनौं = बताऊँ। हरिजन = ईश्वर के भक्त। मत = विचार।