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"वह, कविताएँ और मैं / अमरजीत कौंके" के अवतरणों में अंतर

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कितनी ही धराएँ
 
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कितने ग्रह-नक्षत्र
 
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कितने सूर्य जुगनूओं की भाँति
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जलते बुझते
 
जलते बुझते
  

12:32, 10 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

प्यार करते करते
अचानक वह रूठ जाती
रूठ कर कहती
फिर आए हो वैसे के वैसे
मेरे लिये नई
कविताएँ क्यों नहीं लेकर आए

मैं कहता
कहाँ से लाऊँ मैं कविताएँ
कुछ लिखने के लिए तो दे
दे मेरी कविता के लिये हादसा
या प्यार दे

वह कहती -
मेरे पास क्या है
कवि हो तुम
तुम्हारे पास हैं शब्द सारे

मैं कहता -
क्या नहीं तुम्हारे पास
ब्रह्माण्ड है पूरा तुम्हारे भीतर

और वह ब्रह्माण्ड बन जाती
मैं उसके भीतर उतरता
पर्वतों की चोटियों पर खेलता
लहरों से अठखेलियाँ करता
उसके सीने में उड़ते
परिन्दों के साथ उड़ान भरता

उसके भीतर
कितनी ही धराएँ
कितने ग्रह-नक्षत्र
कितने सूर्य जुगनुओं की भाँति
जलते बुझते

मैं सूरजों को घोड़ा बना कर
अनंत दिशाओं में
उन्हें तेज़ दौड़ाता
आँधी बन कर उसके भीतर शोर करता
तूफ़ान बन कर उमड़ता
पूरे का पूरा ब्रह्माण्ड होती थी वह
उस पल

मैं उसके पास से लौटता
तो कितनी कविताएँ
इठलाती, बल खाती,
मेरे साथ साथ
चलतीं ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा