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14:59, 10 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
मन
हो इतने कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना रेत होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा जीवन
हो इतने चंचल
गुज़रो तो फूटे
हँसी की धार
हर दो आँख कल कल
डरना तो डरे जो कुछ भी जड़
प्रहरियों की सुरक्षा में भी
डरे अकड़
खिलो हर दूसरा खिले साथ
बढ़ो बढ़े हर प्रेमी की नाक
हर बात की बात
बढ़े हर जन
ऐसा ही बन
कुछ बनना ही है
तो ऐसा ही बन.