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14:59, 10 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
जो लिखना चाहिए
लिखना चाहिए कि
सरकार की अस्थिरता के आपात दिनों में
एक शाम उसका चेहरा था
मेरी उँगलियों को छूता
कि दिनभर दौड़धूप टके-पैसे की मारकाट के बाद
वह मैं रेलवे प्लेटफॉर्म पर खड़े
देख रहे थे अस्त जाता सूरज
भीड़ सरकार की अस्थिरता से बेखबर यूँ
सूरज उन तमाम रंगों में रँगा
जो उसके साथ हमें भी शाम के धुँधलके में छिपाए
कि उसके जाने के बाद लगातार कई शाम
मेरी उँगलियाँ ढूँढती हैं
उसकी आँखें
सूरज हर शाम पूछता कुछ सवाल
लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
हमारे उसके रोशनी के क्षण
जब सूरज और अपने दरमियान
अँधेरे में बेचैन है मन.