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15:04, 10 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
जीवन-1
उसकी अठखेलियाँ टूटी पँखुड़ियों सी बिखरी हुईं
कुहासे के पार उसकी उँगलियाँ मन छू रहीं
जाड़े की धूप को अभी आना था
सुकून जो मिलना था उसमें थी बेचैनी
आसमान को नहीं होना था आसमान
यह ज़रूरी नहीं था कि खयाल आए उसका
अन्जाने में ही इधर-उधर हम
प्रवासी पाखी सा छोड़ दिया था किसी के पास
फिर भी खयाल आते बुरे अधिकतर
पहले उसकी मुस्कान थी या उसके शब्द
चुलबुली वह
जब वह गई कुहासा घना इतना कि खुद को देखना मुश्किल
सतरंगा बिखराव फैल रहा था तकलीफ की बारिश
इसके बाद टूटे नल से बहता पानी
खुला खाली आसमान
प्यार जा चुका था अपनी सतह छोड़
बची थी सतह की मुस्कान.