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"मज़हब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं / संजय मिश्रा 'शौक'" के अवतरणों में अंतर
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मज़हब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं
दुनिया तेरी तामीर में बुनियाद हुआ मैं
सय्याद समझता था रिहा न हो सकूंगा
हाथों की नसें काट के आजाद हुआ मैं
हर शख्स हिकारत से मुझे देख रहा है
जैसे किसी मजलूम की फ़रियाद हुआ मैं
मारे गए तमाम लोग फिर से नए फसाद में
जो भी था बानी-ए -फसाद बस वही बेकुसूर था
बढ़ने दिया न वक़्त ने शेरो-अदब की राह में
मंजिले-शायरी से शौक चंद कदम ही दूर था