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"फिर इन्हीं मेरून होठों में / जयकृष्ण राय तुषार" के अवतरणों में अंतर

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09:32, 21 अक्टूबर 2010 का अवतरण

भोर की पहली
किरन के साथ
सूर्यमुखियों की तरह खिलना।

फिर इन्हीं
मेरून होठों में
वादियों में कल हमें मिलना।

पत्थरों पर
बैठकर चुपचाप
हम सुनहरे वक्त के सपने बुनेंगे,

दांत से नाखून
तुम मत काटना
हम महकते फूल शाखों से चुनेंगे,

कैनवस पर
छवि उतारेंगे तुम्हारी
मुस्कराना मगर मत हिलना,

ओस में
भींगे हुए ये पांव
फैलकरके धूप में तुम सेंकना,

भैरवी से केश
जब तुम खोलना
हमें दे देना रिबन मत फेंकना।
आज सारा दिन
तुम्हारा है
शाम से कह दो नहीं ढलना।


झील में
खिलते हुए ताजे कमल
चांदनी रातें तुम्हीं से हैं,

उत्सवों के दिन
अकेलापन
प्यार की बातें तुम्हीं से हैं,
तुम्हीं से
ये मेघ उजले दिन
है टिमटिमाते दिये का जलना।