भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ("रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
(कोई अंतर नहीं)

02:42, 24 अक्टूबर 2010 का अवतरण

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ

जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी से जिस का नाक तलक पेट है भरा
करता फिरे है क्या वो उछल कूद जा ब जा
दीवार फाँद कर कोई कोठा उछल गया
ठठ्ठा हँसी शराब सनम साक़ी इस सिवा

सौ सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ

जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हज़ूर है
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है

इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़बां पे नाम
या चक्की चूल्हे का जहाँ गुलज़ार हो तमाम
वां सर झुका के कीजिये दंडवत और सलाम
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम

पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर पूर
आटा नहीं है छलनी से छन छन गिरे है नूर
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी-ओ-मोती चूर
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर

इस आग को मगर ये बुझाती हैं रोटियाँ

पूछा किसी ने ये किसी कामिल फ़क़ीर से
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाये हैं काहे के
वो सुन के बोला बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे
हम तो न चाँद समझे न सूरज हैं जानते

बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ

फिर पूछा उस ने कहिये ये है दिल का नूर क्या
इस के मुशाहिदे में है खुलता ज़हूर क्या
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या

कश्फ़=प्रदर्शन; क़ुलूब=हृदय

जितने हीं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गये
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गये
दो तर निवाले पेट में जब आ के धुल गये
चौदा तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गये

ये कश्फ़ ये कमाल दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो

अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ

अब जिन के आगे मालपूये भर के थाल हैं
पूरी भगत उन्हीं की वो साहब के लाल हैं
और जिन के आगे रौग़नी और शीरमाल है
आरिफ़ वोही हैं और वोही साहब कमाल हैं

पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ

कपड़े किसी के लाल हों रोटी के वास्ते
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते

जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ

रोटी से नाचे पियादा क़वायद दिखा दिखा
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा लगा
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है नाचता
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा ब जा

सौ सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ

दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है
न दुश्मनी व दोस्ती न तुन्द खोई है
कोई किसी का और किसी का न कोई है
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है

नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ

रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या कतीर
गेहूं जुआर बाजरे की जैसी हो ‘नज़ीर‘

हम को सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ.