भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गोपाल सिंह नेपाली}}{{KKCatKavita‎}}<poem>बाबुल तुम बगिया के तरुवर , हम तरुवर की चिड़ियाँ रे  दाना चुगते उड़ जाएँ हम , पिया मिलन की घड़ियाँ रे  उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे  
बाबुल तुम बगिया के तरुवर …….
आँखों से आंसू आँसू निकले तो पीछे तके नहीं मुड़के घर की कन्या बन का पंछी , फिरें डाली से उड़के  बाजी हारी हुई त्रिया की  
जनम -जनम सौगात पिया की
 बाबुल तुम गूंगे नैना , हम आंसू आँसू की फुलझड़ियाँ रे  उड़ जाएँ तो लौट आयें , आएँ ज्यों मोती की लडियां लडियाँ रे  
हमको सुध न जनम के पहले , अपनी कहाँ अटारी थी
 
आँख खुली तो नभ के नीचे , हम थे गोद तुम्हारी थी
 
ऐसा था वह रैन -बसेरा
 
जहाँ सांझ भी लगे सवेरा
 
बाबुल तुम गिरिराज हिमालय , हम झरनों की कड़ियाँ रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
छितराए नौ लाख सितारे , तेरी नभ की छाया में
 
मंदिर -मूरत , तीरथ देखे , हमने तेरी काया में
 
दुःख में भी हमने सुख देखा
 
तुमने बस कन्या मुख देखा
 
बाबुल तुम कुलवंश कमल हो , हम कोमल पंखुड़ियां रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
बचपन के भोलेपन पर जब , छिटके रंग जवानी के
 
प्यास प्रीति की जागी तो हम , मीन बने बिन पानी के
 
जनम -जनम के प्यासे नैना
 
चाहे नहीं कुंवारे रहना
 
बाबुल ढूंढ फिरो तुम हमको , हम ढूंढें बावरिया रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
चढ़ती उमर बढ़ी तो कुल -मर्यादा से जा टकराई
 
पगड़ी गिरने के दर से , दुनिया जा डोली ले आई
 
मन रोया , गूंजी शहनाई
 
नयन बहे , चुनरी पहनाई
 
पहनाई चुनरी सुहाग की , या डाली हथकड़ियां रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
मंत्र पढ़े सौ सदी पुराने , रीत निभाई प्रीत नहीं
 
तन का सौदा कर के भी तो , पाया मन का मीत नहीं
 
गात फूल सा , कांटे पग में
 
जग के लिए जिए हम जग में
 
बाबुल तुम पगड़ी समाज के , हम पथ की कंकरियां रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
मांग रची आंसू के ऊपर , घूंघट गीली आँखों पर
 
ब्याह नाम से यह लीला ज़ाहिर करवाई लाखों पर
 
नेह लगा तो नैहर छूता , पिया मिले बिछुड़ी सखियाँ
 
प्यार बताकर पीर मिली तो नीर बनीं फूटी अंखियाँ
 
हुई चलाकर चाल पुरानी
 
नयी जवानी पानी पानी
 
चली मनाने चिर वसंत में , ज्यों सावन की झाड़ियाँ रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
देखा जो ससुराल पहुंचकर , तो दुनिया ही न्यारी थी
 
फूलों सा था देश हरा , पर कांटो की फुलवारी थी
 
कहने को सारे अपने थे
 
पर दिन दुपहर के सपने थे
 
मिली नाम पर कोमलता के , केवल नरम कांकरिया रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
   वेद शाश्त्र -शास्त्र थे लिखे पुरुष के , मुश्किल था बचकर जाना  
हारा दांव बचा लेने को , पति को परमेश्वर जाना
 
दुल्हन बनकर दिया जलाया
 
दासी बन घर बार चलाया
 
माँ बनकर ममता बांटी तो , महल बनी झोंपड़िया रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
मन की सेज सुला प्रियतम को , दीप नयन का मंद किया
 
छुड़ा जगत से अपने को , सिंदूर बिंदु में बंद किया
 
जंजीरों में बाँधा तन को
 
त्याग -राग से साधा मन को
 
पंछी के उड़ जाने पर ही , खोली नयन किवाड़ियाँ रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
जनम लिया तो जले पिता -माँ , यौवन खिला ननद -भाभी
 
ब्याह रचा तो जला मोहल्ला , पुत्र हुआ तो बंध्या भी
 
जले ह्रदय के अन्दर नारी
 
उस पर बाहर दुनिया सारी
 
मर जाने पर भी मरघट में , जल - जल उठी लकड़ियाँ रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
 
जनम -जनम जग के नखरे पर , सज -धजकर जाएँ वारी
 
फिर भी समझे गए रात -दिन हम ताड़न के अधिकारी
 
पहले गए पिया जो हमसे अधम बने हम यहाँ अधम से
 
पहले ही हम चल बसें , तो फिर जग बाटें रेवड़ियां रे
 
उड़ जाएँ तो लौट न आयें , ज्यों मोती की लडियां रे
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,277
edits