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"जहनुमी/ जावेद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर

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17:13, 11 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

मै अक्सर सोचता हूँ
जहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
गम का ये लावा
अगर चाहूँ तो रुक सकता है
मेरे दिल की कच्ची खाल पर रखा ये अंगारा
अगर चाहूँ
तो बुझ सकता है
लेकिन
फिर ख्याल आता है
मेरे सारे रिश्तो में पड़ी
सारी दरारों से
गुजर कर आने वाली बर्फ से ठंडी हवा
और मेरी हर पहचान पर सर्दी का ये मोसम
कहीं एसा न हो
इस जिस्म को, इस रूह को ही मुन्ज्मिद कर दे

में अक्सर सोचता हूँ
जहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
गम का ये लावा
अजीयत है
मगर फिर भी गनीमत है
इसी से रूह में गर्मी
बदन में ये हरारत है
ये गम मेरी जरुरत है
में अपने गम से जिन्दा हूँ