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"ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई / भारत भूषण" के अवतरणों में अंतर

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सेज के सपनो भरे कुछ
 
सेज के सपनो भरे कुछ
 
फूल  मुर्दों  पर  चढ़े हैं
 
फूल  मुर्दों  पर  चढ़े हैं
 
 
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
 
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
 
देह  में  है और कोई,  नेह में है और कोई
 
देह  में  है और कोई,  नेह में है और कोई
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कंगनों  से  तोड़  हीरा
 
कंगनों  से  तोड़  हीरा
 
खा  रहीं  कितनी व्यथाएं
 
खा  रहीं  कितनी व्यथाएं
 
 
ये कथाएं उग रही हैं  नागफन जैसी अबोई
 
ये कथाएं उग रही हैं  नागफन जैसी अबोई
 
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई
 
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई
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देह  सब  जूठी पड़ी है
 
देह  सब  जूठी पड़ी है
 
प्राण फिर भी अनछुए हैं
 
प्राण फिर भी अनछुए हैं
 
 
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
 
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
 
हास में है और कोई,  प्यास में है और कोई
 
हास में है और कोई,  प्यास में है और कोई

22:16, 11 नवम्बर 2010 का अवतरण

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई बांह में है और कोई चाह में है और कोई

साँप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं सेज के सपनो भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई देह में है और कोई, नेह में है और कोई

स्वप्न के शव पर खड़े हो मांग भरती हैं प्रथाएं कंगनों से तोड़ हीरा खा रहीं कितनी व्यथाएं ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई

जो समर्पण ही नहीं हैं वे समर्पण भी हुए हैं देह सब जूठी पड़ी है प्राण फिर भी अनछुए हैं ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई हास में है और कोई, प्यास में है और कोई