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"कनुप्रिया - पहला गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
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तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
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जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
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मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
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धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
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तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
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चुपके से सो गयी हूँ
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कि कब मधुमास आए और तुम कब मेरे
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ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष<br>
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फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में<br>
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तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि<br>
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केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ<br>
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तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोई हुई-
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे<br>
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और अब समय आ गया कि
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-<br>
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मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
चुपके से सो गयी हूँ<br>
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और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कि कब मधुमास आये और तुम कब मेरे <br>
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कलियाँ बन खिलूँगी !
प्रस्फुटन से छा जाओ !<br><br>
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ओ पथ के किनारे खड़े
 
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छायादार पावन अशोक-वृक्ष
फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,<br>
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तुम यह क्यों कहते हो कि
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने<br>
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तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ<br>
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कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !  
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोयी हुई-<br>
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और अब समय आ गया कि<br>
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और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल<br>
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कलियाँ बन खिलूँगी !<br>
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तुम यह क्यों कहते हो कि<br>
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तुम मेरी ही प्रतीक्षा में<br>
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कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे ! <br>
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19:33, 14 नवम्बर 2010 का अवतरण

ओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि तुम मेरे चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे तुम को क्या मालूम कि
मैं कितनी बार केवल तुम्हारे लिए-धूल में मिली हूँ
धरती में गहरे उतर जड़ों के सहारे
तु्म्हारे कठोर तने के रेशों में कलियाँ बन, कोंपल बन,सौरभ बन,लाली बन-
चुपके से सो गयी हूँ
कि कब मधुमास आए और तुम कब मेरे
प्रस्फुटन से छा जाओ !

फिर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,
तब तुम को मेरे इन जावक-रचित पाँवों ने
केवल यह स्मरण करा दिया कि मैं तुम्हीं में हूँ
तुम्हारे ही रेशे-रेशे में सोई हुई-
और अब समय आ गया कि
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उडूँगी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे-गुच्छे लाल-लाल
कलियाँ बन खिलूँगी !
ओ पथ के किनारे खड़े
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो कि
तुम मेरी ही प्रतीक्षा में
कितने ही जन्मों से पुष्पहीन खड़े थे !