"कोई चेहरा हुआ रोशन न उजागर आँखें / अहमद कमाल 'परवाज़ी'" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
− | <Poem>कोई चेहरा हुआ | + | <Poem> |
+ | कोई चेहरा हुआ रौशन न उजागर आँखें, | ||
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें, | आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें, | ||
− | ले | + | ले उड़ी वक़्त की आँधी जिन्हें अपने हमराह, |
− | आज फिर | + | आज फिर ढूँढ़ रही है वही मंज़र आँखें, |
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे, | फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे, | ||
− | एक | + | एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आँखें, |
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है, | उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है, | ||
− | अपने हलकों से निकल आई | + | अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आँखें, |
− | तू निगाहों की | + | तू निगाहों की ज़बाँ ख़ूब समझता होगा, |
− | तेरी जानिब तो उठा | + | तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आँखें, |
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी, | लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी, | ||
− | देख लेते जो 'कमाल' | + | देख लेते जो 'कमाल' उसकी समंदर आँखें, |
</poem> | </poem> |
06:46, 19 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
कोई चेहरा हुआ रौशन न उजागर आँखें,
आईना देख रही थी मेरी पत्थर आँखें,
ले उड़ी वक़्त की आँधी जिन्हें अपने हमराह,
आज फिर ढूँढ़ रही है वही मंज़र आँखें,
फूट निकली तो कई शहर-ए-तमन्ना डूबे,
एक क़तरे को तरसती हुई बंजर आँखें,
उस को देखा है तो अब शौक़ का वो आलम है,
अपने हलकों से निकल आई हैं बाहर आँखें,
तू निगाहों की ज़बाँ ख़ूब समझता होगा,
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आँखें,
लोग मरते न दर-ओ-बाम से टकरा के कभी,
देख लेते जो 'कमाल' उसकी समंदर आँखें,