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अपने हाथ अपना खून चाहती है
ज़िन्दगी अब सुकून चाहती है

अब ज़मी नफ़रतो की धूप नही
प्यार का मानसून चाहती है

भूक मे कितने जिस्म ये धरती
प्यास मे कितना खून चाहती है

इश्क अहले खिरद का काम नही
आशिकी तो जुनून चाहती है

ख्वाब शायद वो बुन रही है कोई
इक सुहागन जो ऊन चाहती है

ज़िन्दगी उम्र के दिसम्बर मे
फिर वही मई व जून चाहती है

कितनी नादान है ये दुनिया भी
पहले जैसा सुकून चाहती है

कामयाबी सुखनवरी ही नही
और भी कुछ फ़ुनून चहती है

छत हमारे गुमान की ’बेखुद’
अब यकीं का सुतून चाहती है