भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा / ओमप्रकाश यती" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओमप्रकाश यती }} {{KKCatGhazal}} <poem> रिश्तों का उपवन इतना …) |
छो |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatGhazal}} | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा। | + | रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा। |
− | हमने | + | हमने घर के बूढ़ों का अपमान नहीं देखा। |
+ | |||
+ | जिनकी बुनियादें ही धन्धों पर आधारित हैं | ||
+ | ऐसे रिश्तों को चढ़ते परवान नहीं देखा। | ||
− | + | कोई तुम्हारा कान चुराकर भाग रहा, सुनकर | |
− | + | उसके पीछे भागे ,अपना कान नहीं देखा | |
− | + | दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा | |
− | + | उसका मन, जिसने जाकर शमशान नहीं देखा। | |
− | + | ||
− | दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा | + | |
− | उसका मन जिसने जाकर शमशान नहीं देखा। | + | |
दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली | दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली | ||
− | हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा। | + | हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा। |
</poem> | </poem> |
21:00, 22 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा।
हमने घर के बूढ़ों का अपमान नहीं देखा।
जिनकी बुनियादें ही धन्धों पर आधारित हैं
ऐसे रिश्तों को चढ़ते परवान नहीं देखा।
कोई तुम्हारा कान चुराकर भाग रहा, सुनकर
उसके पीछे भागे ,अपना कान नहीं देखा
दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा
उसका मन, जिसने जाकर शमशान नहीं देखा।
दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली
हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा।