भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हम तुमसे क्या उम्मीद करते / अंशु मालवीय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
''' हम तुमसे क्या उम्मीद करते ''' | ''' हम तुमसे क्या उम्मीद करते ''' | ||
+ | |||
...हम तुमसे क्या उम्मीद करते | ...हम तुमसे क्या उम्मीद करते | ||
ब्राम्हण देव! | ब्राम्हण देव! |
16:33, 24 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
हम तुमसे क्या उम्मीद करते
...हम तुमसे क्या उम्मीद करते
ब्राम्हण देव!
तुमने तो खुद अपने शरीर के
बाएं हिस्से को अछूत बना डाला
बनाया पैरों को अछूत
रंभाते रहे मां...मां और मां,
और मातृत्व रस के
रक्ताभ धब्बों को बना दिया अछूत
हमारे चलने को कहा रेंगना
भाषा को अछूत बना दिया
छंद को, दिशा को
वृक्षों को, पंछियों को
एक-एक कर सारी सदियों को
बना दिया अछूत
सब कुछ बांटा
किया विघटन में विकास
और अब देखो ब्राम्हण देव
इतना सब कुछ करते हुए आज अकेले बचे तुम
अकेले...और...अछूत !