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मन का कोई बहुत बड़ा सच छिपा होता है, | मन का कोई बहुत बड़ा सच छिपा होता है, |
16:37, 24 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
पालतू जानवर
बदहवास सपनों की बेख़ौफ़ आवाजाही में,
मन का कोई बहुत बड़ा सच छिपा होता है,
ऎसा उसने सब जानकारों से सुन रखा था,
मन पर, दिमाग़ पर शोध करने वालों
सबका यही कहना था,
इसलिए सपने के टूटने के बाद से,
सारी रात और सारी सुबह,
प्रभा
सपने की याद से गुत्थम-गुत्था हो रही,
यह जानने को बेताब
कि आख़िर सच क्या था?
सपने में प्रभा फिर से मिडिल स्कूल में पढ़ती थी,
और परीक्षा के दिनों में,
हिन्दी का परचा कर, ख़ुश-ख़ुश घर लौटी थी,
पर जब परीक्षाफल आय,
हिन्दी में प्रभ ने बेहद कम अंक पाया,
वह निबंध जो उसने सोचा,
उसने सुन्दर लिखा था,
'हमारे पालतू जानवर',
उसमें लाल की धारियाँ ही धारियाँ थीं,
अध्यापक महोदय की टिप्पणी थी,
कि हालाँकि शैली पुख़्ता, भाषा शुद्ध थी,
निबन्ध में आधारभूत त्रुटियाँ थीं,
कि गाय, बकरी, घोड़ा, कुत्ता
हमारे प्रमुख पालतू जानवर नहीं,
अब हमारे प्रमुख पालतू जानवर हैं,
साँप, छ्छूंदर, मेंढक, बिच्छू।
पर इससे पहले कि अध्यापक महोदय
के पास जाकर प्रभा पूछ पाती,
उसकी नींद उचट गई,
मिडिल स्कूल से निकलकर
वह वापस अपनी व्यस्क ज़िन्दगी में पहुँच गई
और सपना अधूरा रह गया,
या क्या मालूम उतनी ही सपने की ज़िन्दगी हो?
पर सपने का वह अनपूछा सवाल,
प्रभा की उनींदी आँखों में टंगा रहा,
उनींदी होकर भी, जब आँखों में नींद लौट नहीं सकी,
तो कमरे के अंधेरे से,
रात की ख़ामोशी से,
प्रभा ने पूछा,
क्या क़ैद कर लेने से जानवर पालतू बन जाते हैं?
क्या पिंजरे में बंद शेर पालतू हो जाता है?
क्या उसके अन्दर की वह खूँखार दहाड़,
आख़िरी साँस तक क़ायम नहीं रहती?
और क्या इसीलिए वह शेर नहीं कहलाता?
वरना क्या शेर, क्या भेड़ और क्या गीदड़?
क्या जानवरों के प्रकृतिदत्त स्वभाव नहीं?
क्या इस प्रकृतिदत्त स्वभाव को जीत लेना
उन्हें पालतू बनाना है?
क्या जानवरों को पालतू बनाकर
अन्तत: प्रकृति को पालतू बनाना है?
यदि नहीं तो क्या चट्टानों की तहों,
पहाड़ों की कन्दराओं से
साँप और बिच्छू की विषैली,
वनैली जातियों को पकड़
शीशे के मर्तबान जैसे पिंजरों में बंद कर,
घरों में शो पीस की तरह सजाने का शौक?
आख़िर ग़लत क्या लिखा था,
प्रभा ने अपने निबन्ध में?
पर लिखा ही क्यों था उसने वह निबंध?
क्योंकर रचा था उसने वह सपना?
कहाँ से उग आई थी जेहन में यह बहस?
सपने की रात से पह्ले, घूमने की शाम को
घूमते-घूमते प्रभा ने कुछ विरले जीव
शीशे के डब्बो में बंद,
रंगते देखे थे,
जैसे कई बार शाम को लोग खेल-तमाशे,
नाटक देखने जाते हैं
जैसे लोग संग्रहालय में मूर्तियाँ,
प्रदर्शनियों में चित्र, तस्वीर देखने जाते हैं
वैसे विशुद्ध मनोरंजन के लिए,
बिना किसी पूर्व योजना,
अचानक सामने से गुज़रते हुए मैं
अरुण प्रभा का हाथ थाम कर
एक 'एग्ज़ोटिक पेट स्टोर' में जा घुसा था
अंदर जैसे पिंजरों की क़तार का अंतहीन आरम्भ था,
ऊँचे आसमान के पक्षी और गहरे सागर की मछलियाँ,
ख़ूबसूरती का अपराध
प्रभा ने उदास होकर सोचा था,
लैटिन अमरीका के विभिन्न देशों में बँटे जंगल
के भीतर से हर कर लाए पक्षी
पंखों में रंगों की कल्पनातीत आभा लिए,
जो धीरे-धीरे सलाख़ों के भीतर
धूसर हो रही थी
सलाख़ों में अपनी उंगलियाँ फँसाकर,
उदास आँखों में अपनी आँखें डालकर,
प्रभा ने चुपचाप उनसे पूछा था,
क्या किसी ने तुमसे नहीं कहा?
क्या तुमने कभी नहीं सुना?
बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा,
तुम उस जाल में मत फँसना,
पर प्रभा जैसे-जैसे अन्दर, और अन्दर
प्रवेश पाती गई,
पिंजड़ों के आकार और क़ैदियों की
शक्ल बदलती गई,
ख़ूबसूरत जलचरों और नभचरों की बजाय,
थलवासी कुछ वीभत्स जीव नज़र आने लगे,
मानों ख़ूबसूरत प्रदेशों से निकलकर
प्रभा निषिद्ध इलाके में पहुँच गई,
निर्जनवासी, एकाकी विषधर,
इन्हें पालने का कैसा शौक?
क्या ख़ूबसूरती अब काफ़ी नहीं रिझाने को?
क्या भयावह के प्रति हमारा नया कुत्सित आकर्षण है?
या कि यह विजय का ऎलान है प्रकृति के
ख़ूंखार रूप पर?
कि हम पाल सकते हैं उसको भी
जो डँसकर हमें मार देने के क़ाबिल है?
पर कहीं साँप की लपलपाती जीभ भी पालतू बन सकती है?
क्या इतना बड़ा है आदमी होने का दम्भ?
क्या इतनी बुरी है आदमी होने की ऊब,
कि हर अतल गह्वर में,
हर अपरिमेय ऊँचाई पर,
उसे पहुँचना है,
लोहे की जंज़ीर लेकर,
सर्कस की चाबुक लेकर?