भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पत्रोत्कंठित जीवन का विष / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार= सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
+
|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
 +
|संग्रह=सांध्य काकली / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला";रागविराग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita}}
+
{{KKCatKavita‎}}
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,<br>
+
<poem>
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,<br>
+
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है<br>
+
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में।<br>
+
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे<br>
+
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में ।
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,<br>
+
 
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,<br>
+
लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर<br>
+
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित<br>
+
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
कल शारद कल्प की हेम लोमों आच्छादित,<br>
+
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,<br>
+
 
बीत चुका है दिक् चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति-<br>
+
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के<br>
+
कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित,
वाद्य छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से,<br>
+
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत। मल्ल मल्ल की-<br>
+
बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गये हैं<br>
+
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।<br>
+
वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से--
पुनः सवेरा, एक और फेरा हो जी का।
+
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की--
 +
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं
 +
 
 +
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
 +
पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।
 +
</poem>

23:24, 28 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में ।

लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर ।

स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित,
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से--
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की--
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं ।

झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।