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"बस्ती यहाँ कहाँ पिछडी है / लाला जगदलपुरी" के अवतरणों में अंतर

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{{KKCatKavita}}<poem>दहकन का अहसास कराता, चंदन कितना बदल गया है
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मेरा चेहरा मुझे डराता, दरपन कितना बदल गया है।
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जिसके सिर पर धूप खड़ी है
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दुनिया उसकी बहुत बड़ी है ।
  
आँखों ही आँखों में, सूख गयी हरियाली अंतर्मन की;
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ऊपर नीलाकाश परिन्दे,
कौन करे विश्वास कि मेरा, सावन कितना बदल गया है।
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नीचे धरती बहुत पड़ी है ।
  
पाँवों के नीचे से खिसक खिसक जाता सा बात बात में;
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यहाँ कहकहों की जमात में,
मेरे तुलसी के बिरवे का, आँगन कितना बदल गया है।
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व्यथा कथा उखड़ी-उखड़ी है।
  
भाग रहे हैं लोग मृत्यु के, पीछे पीछे बिना बुलाये;
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जाले यहाँ कलाकृतियाँ हैं,
जिजीविषा से अलग-थलग यह, जीवन कितना बदल गया है।
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प्रतिभा यहाँ सिर्फ़ मकड़ी है।
  
प्रोत्साहन की नयी दिशा में, देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
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यहाँ सत्य के पक्षधरों की,
दुर्जनता की पीठ ठोंकता, सज्जन कितना बदल गया है।
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सच्चाई पर नज़र कड़ी है।
  
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जिसने सोचा गहराई को,
साहित्य शिल्पी www.sahityashilpi.com के बस्तर के 'वरिष्ठतम साहित्यकार' की रचनाओं को अंतरजाल पर प्रस्तुत करने के प्रयास के अंतर्गत संग्रहित। </poem>
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उसके मस्तक कील गड़ी है ।
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और कहाँ तक प्रगति करेगी,
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बस्ती यहाँ कहाँ पिछड़ी है ?
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14:25, 29 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

जिसके सिर पर धूप खड़ी है
दुनिया उसकी बहुत बड़ी है ।

ऊपर नीलाकाश परिन्दे,
नीचे धरती बहुत पड़ी है ।

यहाँ कहकहों की जमात में,
व्यथा कथा उखड़ी-उखड़ी है।

जाले यहाँ कलाकृतियाँ हैं,
प्रतिभा यहाँ सिर्फ़ मकड़ी है।

यहाँ सत्य के पक्षधरों की,
सच्चाई पर नज़र कड़ी है।

जिसने सोचा गहराई को,
उसके मस्तक कील गड़ी है ।

और कहाँ तक प्रगति करेगी,
बस्ती यहाँ कहाँ पिछड़ी है ?