भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कुछ तो करो / अनिरुद्ध नीरव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध नीरव |संग्रह=उड़ने की मुद्रा में / अनिर…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 37: | पंक्ति 37: | ||
जाली पड़ी है | जाली पड़ी है | ||
− | चैत आ कर | + | चैत आ कर छन गया |
कुछ तो करो । | कुछ तो करो । | ||
</poem> | </poem> |
09:58, 3 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
पेड़ पिंजर बन गया
कुछ तो करो
वक़्त कोटर खन गया
कुछ तो करो
भुंज गया तन
शाख भी
तड़के निरन्तर
देह का
सारा तरल
कड़के निरन्तर
लो कुल्हाड़ा तन गया
कुछ तो करो
गिद्ध बैठा
शाख पर
असगुन उगाए
और नीचे
दीमकों ने
गढ़ बनाए
क्रोड़ विषधर जन गया
कुछ तो करो
पीड़ पपड़ाई हुई
काली पड़ी है
एक पत्ता
शेष है
जाली पड़ी है
चैत आ कर छन गया
कुछ तो करो ।