"पत्नी-२. पति की मृत्यु पर / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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निर्मम पत्थरों पर | निर्मम पत्थरों पर | ||
फोड़ रही है अपना सिर, | फोड़ रही है अपना सिर, | ||
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अपना सिन्दूर, | अपना सिन्दूर, | ||
ड्योढ़ी पर बैठ | ड्योढ़ी पर बैठ | ||
− | चूर्ण कर रही है | + | चूर्ण कर रही है-- |
− | अपने | + | अपने कमलनालों के कंगन, |
नोच रही है | नोच रही है | ||
अपने केश-जाल, | अपने केश-जाल, | ||
− | पछता रही है | + | पछता रही है-- |
सोमवारीय व्रतों की निरर्थकता पर, | सोमवारीय व्रतों की निरर्थकता पर, | ||
− | कोस रही है | + | कोस रही है-- |
करवा चौथ और तीज-त्योहार | करवा चौथ और तीज-त्योहार | ||
और माँगी गई मन्नतों के | और माँगी गई मन्नतों के | ||
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पछता-पछता सोच रही है-- | पछता-पछता सोच रही है-- | ||
कुछ संयोगी संध्याएँ | कुछ संयोगी संध्याएँ | ||
− | कुछ दुर्लभ गंध | + | कुछ दुर्लभ गंध |
कुछ मनचाहे द्वंद्वों के | कुछ मनचाहे द्वंद्वों के | ||
− | मधुमासी फुहार | + | मधुमासी फुहार |
− | + | जलते जिस्मानी जज़्बात के | |
− | आकार-प्रकार | + | आकार-प्रकार |
प्रेम में सागर | प्रेम में सागर | ||
घृणा में प्यार | घृणा में प्यार | ||
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अब वह डूबती ही जाएगी | अब वह डूबती ही जाएगी | ||
− | बरामदे से अंतरंग कक्षों तक | + | बरामदे से अंतरंग कक्षों तक, |
− | कूपकोठरियों से कालकोठरियों तक | + | कूपकोठरियों से कालकोठरियों तक |
− | + | ||
+ | डूबती, डूबती ही जाएगी | ||
श्वांस के अंतिम उच्छवास तक-- | श्वांस के अंतिम उच्छवास तक-- | ||
− | + | ग्लानि-सागर में, | |
अनियंत्रित दुश्चिन्ताओं के | अनियंत्रित दुश्चिन्ताओं के | ||
− | अश्रुनदीय भंवर में | + | अश्रुनदीय भंवर में, |
− | लांछनों के गाढ़े कीचड़ में | + | लांछनों के गाढ़े कीचड़ में, |
आत्महत्यात्मक ख्यालों की बारम्बारताओं में, | आत्महत्यात्मक ख्यालों की बारम्बारताओं में, | ||
परत-दर-परत कटती ही जाएगी | परत-दर-परत कटती ही जाएगी | ||
− | उसकी स्वप्न-सिंचित जमीन | + | उसकी स्वप्न-सिंचित जमीन, |
ढहती ही जाएगी | ढहती ही जाएगी | ||
− | उसकी बहुमंजिली महत्त्वाकांक्षाएं | + | उसकी बहुमंजिली महत्त्वाकांक्षाएं, |
− | अंत:चेतन में खड़ी | + | और अंत:चेतन में खड़ी |
उसकी गगनचुम्बी कामनाएं, | उसकी गगनचुम्बी कामनाएं, | ||
छलनी होती ही जाएगी उसकी जिजीविषाएँ | छलनी होती ही जाएगी उसकी जिजीविषाएँ |
01:47, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
पत्नी:पति की मृत्यु पर
वह रिवाज़ों के अश्व पर
इस शोक के दौर में
होकर सवार,
निर्मम पत्थरों पर
फोड़ रही है अपना सिर,
असंख्य हाथों से पोछ रही है
अपना सिन्दूर,
ड्योढ़ी पर बैठ
चूर्ण कर रही है--
अपने कमलनालों के कंगन,
नोच रही है
अपने केश-जाल,
पछता रही है--
सोमवारीय व्रतों की निरर्थकता पर,
कोस रही है--
करवा चौथ और तीज-त्योहार
और माँगी गई मन्नतों के
व्यर्थ प्रतिकार
वह वैधव्य के निहिताशय में
अपना भविष्य डाल
पछता-पछता सोच रही है--
कुछ संयोगी संध्याएँ
कुछ दुर्लभ गंध
कुछ मनचाहे द्वंद्वों के
मधुमासी फुहार
जलते जिस्मानी जज़्बात के
आकार-प्रकार
प्रेम में सागर
घृणा में प्यार
और अब शिव से शव बना
उसका खंडित पति-पतवार
देह से अदेह का दार्शनिक व्यापार
और उसका होना
जीव से महाजीव में एकाकार
अब वह डूबती ही जाएगी
बरामदे से अंतरंग कक्षों तक,
कूपकोठरियों से कालकोठरियों तक
डूबती, डूबती ही जाएगी
श्वांस के अंतिम उच्छवास तक--
ग्लानि-सागर में,
अनियंत्रित दुश्चिन्ताओं के
अश्रुनदीय भंवर में,
लांछनों के गाढ़े कीचड़ में,
आत्महत्यात्मक ख्यालों की बारम्बारताओं में,
परत-दर-परत कटती ही जाएगी
उसकी स्वप्न-सिंचित जमीन,
ढहती ही जाएगी
उसकी बहुमंजिली महत्त्वाकांक्षाएं,
और अंत:चेतन में खड़ी
उसकी गगनचुम्बी कामनाएं,
छलनी होती ही जाएगी उसकी जिजीविषाएँ
पर, शेष रह जाएँगी
समय-बंधन काटने की
उबाऊ यातनाएं,
छूटते जाएंगे
उसके सामाजिक सरोकार
फूटते जाएंगे मोहबंधनों के गुबार,
फिसलती जाएगी
रश्मों पर उसकी पकड़,
झूठे पड़ जाएंगे
ससुरालियों के स्नेह-आशीष.