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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार अनिल|संग्रह=}}{{KKCatKataa‎}}<poemPoem>चल मन, उठ अब तैयारी करयह चला - चली की वेला है
कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली धुँधली होती आकृतियाँ
है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।है ।
मां माँ की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।है ।
कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों उत्कर्षों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के
अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।है ।
जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता
अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है
झूठे दिन, झूठी राते हैं
अब तक यहाँ जो झेला है ।
इससे पहले तन सड़ जायेजाएमुट्ठी से रेत बिखर जायेजाए
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जायेजाए
उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।है ।</poem>
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