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यह कथा व्यक्ति की नहीं,<br>एक संस्कृति की है;<br>यह स्नेह शांति<br>सौंदर्य शौर्य की, धृति की है ।<br>यह धारा संस्कृति की <br>विशिष्ट अति वेगवान, <br>केवल भारत की धरती पर <br>थी प्रवहमान ।<br>
इस महापुरुष ने<br>इसे प्रवहित किया वहाँ -<br>कल्पनातीत था<br>इसका<br>कल-कल नाद जहाँ ।<br>
यह धारा<br>हुई प्रवाहित<br>ऐसे देशों में <br>ऐसे अगम्य<br>ऐसे अलंघ्य<br>परिवेशों में -<br>जिनके आड़े<br>ऊँचे गिरि-प्रान्तर<br>सागर थे,<br>जो स्वयं<br>सुसंस्कृत थे<br>प्राचीन उजागर थे !<br>
जिनको अपनी भाषा<br>संस्कृति का<br>गौरव था;<br>जो गंधमान थे<br>जिनका<br>अपना सौरभ था !<br>
ऐसे देशों में <br>अपनी धार बहा देना,<br>चाहे जितना<br>निश्छल हो<br>प्यार बहा देना-<br>श्रद्धा निष्ठा<br>व्याकुलता शक्ति<br>माँगता है; <br>अविरोध <br>और आशा उत्कट,<br>आत्यंतिक भक्ति<br>माँगता है ! <br>
इस महाप्राण ने<br>अपने में पहले विकास<br>इनका करके<br>फिर धीरे-धीरे<br>यह विशिष्टता<br>जन-जन के मन में भरके<br>कर दिया प्रवाहित<br>एक ओघ-सौंदर्य<br>विचारों का ऐसा-<br>निःस्वार्थ-भाव,<br>निष्ठापूर्वक,<br>था हुआ नहीं <br>अब तक ऐसा !<br>
पहुँचे हैं धर्म-प्रचारक<br>दुनिया में<br>सेना के साथ-साथ<br>लेकर यह मिथ्या अहंकार<br>’करना है दोनों को सनाथ।’<br>
इस महापुरुष ने <br>धर्म और<br>सेना का साथ नहीं माना,<br>इसने<br>हित को फैलाने में<br>हिंसा का हाथ नहीं माना ।<br>
भारत के लोग <br>गए बाहर<br>लेकिन सेना लेकर न गए;<br>वे जहाँ गये इसलिए<br>प्रेम के पौधे<br>पनपें नये-नये ! <br>
वे शस्त्र नहीं<br>ले बढ़े स्नेह<br>सागर को लाँघा आर-पार<br>ना; घुड़सवार या<br>रथी नहीं<br>पादातिक थे उनके विचार !<br>
वे चले बचाकर चींटी को<br>पशु-बल को सदा<br>नगण्य गिना;<br>इसलिए<br>निपट अन्यों ने उनको<br>अपना और अनन्य गिना ! <br>
तब भारतीय संस्कृति-धारा बनकर ललिता<br>हो गयी मेखलाकार, स्वर्ण-सागर, वलिता;<br>
जिस शिव-निमित्त-संस्कृति-धारा ने<br>तट धोये इन देशों के <br>जिसके कारण हो गए रूप<br>जाज्वल्यमान परिवेशों के;<br>
उच्छल फेनिल होकर भी थी <br>जो धारा<br>गर्जन से विहीन,<br>जो पहुँची थी<br>अंजुलि में भर<br>वाणी निर्मल स्नेहिल अदीन,<br>
वह धारा अब तक <br>बरस सहस्रों बीत गए<br>आँखों के आगे आती है <br>धर रूप नए !<br>
है कभी शंकराचार्य<br>कभी नानक कबीर<br>वह आती-जाती है हम तक<br>होकर अधीर !<br>
वह कभी <br>विवेकानन्द<br>कभी है रवि ठाकुर<br>फिर कभी गूंजने लगती है<br>बनकर<br>गांधी का गौरव-स्वर !<br>
निःशब्द निभृत में बहती है <br>यह धारा <br>भरकर कल-कल स्वर<br>रूखे-सूखे<br>ऊँचे-नीचे<br>पृथ्वी के अंचल अपनाकर !<br>
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