भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मेरी ही यादों में खोई
अक्सर तुम पागल होती हो
:माँ तुम गंगा-जल होती हो !:माँ तुम गंगा-जल होती हो !
जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
मन का सूना संवत्सर
:जब-जब हम लय गति से भटकें
:तब-तब तुम मादल होती हो ।हो।
व्रत, उत्सव, मेले की गणना
आजीवन झूला करती हो
:तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
:ज्यादा निर्मल होती हो ।हो।
पल-पल जगती-सी आँखों में
मंदिर में घंटियाँ बजाती
:जब-जब ये आँखें धुंधलाती
:तब-तब तुम काजल होती हो ।हो।
हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें ।तारें।
:तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
:तुम तो स्वयं कमल होती हो ।हो।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,103
edits