भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<Poem>
ज़मीन और जिस्म के बीच सुगबुगाता आदमी
 
जैसे फूट रही हो बाँस की कोपलें
 
छू ली मैंने बहती हुई रात
 
कितनी सर्द, कितनी बेदर्द
 
करने लगी मज़ाक अपने आप से गरीबी
 
कितनी रातों से नहीं सोती है नींद मेरी
 
भीग गये अब तो आँसू भी रोते-रोते
 
एक सदी का सा एहसास देता है पल
 
घाव-सा कुछ है सितारों के बदन पर
 
आँखं छिल जायेंगी देखोगे अगर चाँद
 
काट दिये किसने पर हवाओं के
 
बिल्ली के पंजों में आ गया बादल
 
आज फिर मुसलाधार बरसा है लहू
 
पानी का रंग लाल है सारे नालों में
 
एकत्र करता हूँ बोतल में काली धूप
 
मुट्ठी से फिसल जाती है ज़िन्दगी मेरी
 
देख रहा है उदास काँच का टूकड़ा
 
आज भी टेढ़ी है उस कुतिया की दुम
 
मचलती जाती है नदी मेरी बाहों में
 
कितना मटमैला है शाम का क्षितिज
 
टूट गया कोई हरा पत्ता डायरी से
 
वर्षों से खाली पड़ा है एक कमरा
 
चूम लेती है मुझे तस्वीर बाबूजी की
 
याद का कोहरा घना है बहुत
 
वह जो मिला था पॉकेटमार था शायद
 
चॉकलेट नहीं है अब जेब में मेरी
 
हर एक पल बढ़ती रही भूख बच्चों की
 
उबलता रहा सम्बन्ध का सागर
 
खो गई जाने कहाँ दूध-सी मुस्कान
 
पिछले साल माँ ने मेरी स्वेटर पर
 
उकेरा था एक नदी और एक चिड़िया
 
नदी में डूब कर मर गई वह चिड़िया
 और बन्द हो गया आदमी का सुगबुगाना
<Poem>
Mover, Reupload, Uploader
301
edits