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और जब कभी भी
 
टटोलता हूँ
 
बाहर का विस्तृत आकाश
 
बिछी हुई धरती का
 
अपरिमेय विस्तार
 
स्वयं को
 
बहुत बौना पाता हूँ
 
डरने लगता हूँ
 
और कहीं
 
अपने ही अन्दर
 
छुपने की जगह
 
तलाशने लग जाता हूँ
 
 
मेरे अन्दर की
 
बिछी हुई धरती पर
 
कितनी ही
 
झुग्गियाँ
 
और झोपड़ियाँ हैं
 
उनके सामने
 
धूल से अँटे
 
खेलते बच्चे हैं
 
जो मुझे देख
 
छुप जाते हैं
 
दहशत से भर जाते हैं
 
 
मैं
 
सभी को पहचानता हूँ
 
शायद वे
 
नहीं पहचानते मुझे
 
समझ रहे हैं प्रेत !
 
 
सामने
 
एक लम्बी पगडंडी है
 
आपस में
 
बतियाते
 
दूर से ही
 
कई लोग
 
चले आ रहे हैं
 
पर मुझे देख
 
लगता है
 
कोई प्रेत देख लिया---
 
 
भागते हैं तेज़
 
::और तेज़
 
::और तेज़
 
 
ओह !
 
इस
 
अन्दर की दुनिया में भी
 
कितना अजनबी हूँ
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