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जिससे थी तब सुधा बरसती
आज वही नागिन-सी  डँसती
छूते जिसे डरूँ
 
जिसको लेते ही अब कर में
पीड़ा होती है अंतर में
कैसे फिर उसकी धुन पर मैं
जग को मुग्ध करूँ
 
इसको तभी धरूँ अधरों पर
जब सँग-सँग हो राधा का स्वर!
जब यह मुरली सुना-सुनाकर
उसका मान हरूँ  
मुरली कैसे अधर धरूँ!
सुर तो वृन्दावन में छूटे, कैसे तान भरूँ!
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