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माँ का हृदय हो उठा कातर
बोली सुत की ओर पलटकर--
'तू यह दुख क्या जाने!
 
'तूने सेतु सिन्धु पर बाँधा
पर नारी का हृदय न साधा
अब तक मिली न कोई बाधा
पूरे जो प्रण ठाने
 
'पर ऐसी मर्यादा पाले!
पत्नी की लज्जा न सँभाले!
कभी निकाले, कभी बुला ले
क्यों वह रोष न माने!'
सुन पति-वचन स्नेह में साने
काँपी देह, नयन भर आये, कहा न कुछ सीता ने
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