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सहर होने से पहले आस्मां पर ये जो लाली है।
उभर कर आई है हसरत जो ख़ूं से हमने पाली है।
ये दुनिया ऐसा दरिया है, ख़ुदा का ‘नूर’ है जिसमें,
किनारों से जो टकराए वो दस्ते-मौज ख़ाली है।
 
सफ़र में धूप है बाकी, मिलन की प्यास भी बाक़ी,
मगर वो ज़िन्दगी डरती है जो घर से निकाली है।
 
हवस जो बढ़ रही है वो हमें भी मार डालेगी,
बहादुर है वो जिसने भी हवस पर फ़त्ह पा ली है।
 
बशर सब डरने वाले हैं, मुहाफ़िज़ गैर-हाज़िर हैं,
अजब है इन्तिज़ाम उनका, मुसीबत भी निराली है।
 
ग़नीमत है कि दुनिया में मुहब्बत आज भी कायम,
कोई है पत्ते-पत्ते पर तो कोई डाली-डाली है।
 
हमें भी याद है वो ‘नूर’ का ग़फ़लत भरा आलम,
गिरे फिर दौड़ में आगे बढ़े, ठोकर भी खा ली है।
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