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स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग में सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग मॅ में मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मै,
नही कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मै.
ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से.
लगता है, कोई शोणित मॅ में स्वर्ण तरी खेता है
रह-रह मुझे उठा अपनी बाहॉ मॅ भर लेता है
कौन देवता है, जो यॉ छिप-छिप कर खेल रहा है,
प्राणॉ के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?
जिस्का ध्यान प्राण मॅ में मेरे यह प्रमोद भरता है,उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है.है।
यही चाह्ती चाहती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मै,
उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहॉ मॅ जकड़ू मै,
निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,
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