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लेखपाल / मानबहादुर सिंह

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जो हाथ पेट के लिए
दूसरे का पाँव धोता है
वह राजा की तक़दीर नहीं रखता।” रखता ।”
तुम अब भी नहीं समझे, लेखपाल साहब !
इन मूँछों को उखाड़ मोज़ा बनवा लेंगे ।
मुरदा सूरतों में चिथड़ी हालत पहने
नौटंकी की बादशाही क्यों बघारते हो भाई?
आख़िर सच्चाइयों के पेड़ पर चढ़
अपनी ज़रूरतें तोड़ते हुए
नहीं तो, कोई भी राष्ट्रगान
लेखपाल की मुद्रा में सारी धरती बाँध
आदमी को बेदख़ल कर देगा। देगा ।
ऐसी ही रहा तो, लेखपाल जी !
क्या तहसीलदार तुम्हें नहीं खाएगा?
होते टैगोर तो मैं ज़रूर कहता
कि वैसे ही देश में बहुत सारे ईश्वर हैं
देश को भी एक और ईश्वर मत बनाओ
नहीं तो , राष्ट्रगान गाता हुआ कोई
हिटलर में बदल जाएगा
और सारी दुनिया भवबाधा पार कर जाएगी ।
धरती की राम-लीला होम हो जाएगी ।
अपने बिकने में क्यों बक़लम-ख़ुद बनते हो ।
अंततः अन्ततः लेखपाल की क़लम जब
तहसीलदार का दस्तख़त कमाएगी
तो राष्ट्रगान तो राष्ट्रगान राष्ट्रद्रोही नहीं पाएगा ?
भारतीय संस्कृति का बड़प्पन झाँकने लगता था
लेकिन दस कोस पैदल आई महरि के आगे
राजा की बोली—मेरे बोली — मेरे मित्र की दिव्य वाणी है
जो चिथड़ी हालत के सामने
सुमिरन के बेटे की नौटंकी कर रही है ।
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