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धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किससे आश्नाई की
क्यों बढ़ाते हो इख़्तलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
 
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हमसे
साअत आ पहुँची उस जुदाई की
ज़िंदा फरने फिरने की हवस है ‘हाली’
इन्तहा है ये बेहयाई की
 
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