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वन झरने की धार / अज्ञेय

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[[Category:कविताएँ]]
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मुड़ी डगर
मैं ठिठक गया
वन-झरने की धार
साल के पत्ते पर से
झरती रही
मुड़ी डगर <br> मैने हाथ पसार दिये मैं ठिठक गया <br>वह शीतलता चमकीली वन-झरने की धार <br>मेरी अंजुरी साल के पत्ते पर से <br>झरती भरती रही <br><br>
मैने हाथ पसार दिये <br>गिरती बिखरती वह शीतलता चमकीली <br>एक कलकल मेरी अंजुरी <br>भरती करती रही <br><br>
गिरती बिखरती <br>भूल गया मैं क्लांति, तृषा, अवसाद, याद बस एक कलकल <br> हर रोम में करती सिहरती रही <br><br>
भूल गया मैं क्लांति, तृषा, <br>लोच भरी एडि़याँ अवसाद, <br>लहराती याद <br>तुम्हारी चाल के संग-संग बस एक <br>मेरी चेतना हर रोम में <br>सिहरती विहरती रही <br><br>
लोच भरी एडि़याँ <br>आह! धार वह वन झरने की लहराती <br>भरती अंजुरी से तुम्हारी चाल के संग-संग <br>मेरी चेतना <br>विहरती झरती रही <br><br>
आह! धार वह वन झरने की <br>भरती अंजुरी और याद से <br>सिहरती मेरी मति तुम्हारी लहराती गति के झरती साथ विचरती रही <br>
और याद से सिहरती <br>मेरी मति <br>तुम्हारी लहराती गति के <br>साथ विचरती रही <br><br> मैं ठिठक रहा <br> मुड़ गयी डगर <br> वन झरने सी तुम <br> मुझे भिंजाती <br> चली गयीं <br> सो... चली गयीं... <br><br/poem>
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