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− | रचनाकारः [[अनिल जनविजय]]
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| माँ, प्यारी माँ<br> | | माँ, प्यारी माँ<br> |
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| माँ, प्यारी माँ<br> | | माँ, प्यारी माँ<br> |
| मुझे अपनी शरण में ले<br><br> | | मुझे अपनी शरण में ले<br><br> |
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− | धूमिल की कुछ कविताएँ
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− | 1 दिनचर्या
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− | सुबह जब अंधकार कहीं नहीं होगा,
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− | हम बुझी हुई बत्तियों को
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− | इकट्ठा करेंगे और
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− | आपस में बांट लेंगे.
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− | दुपहर जब कहीं बर्फ नहीं होगी
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− | और न झड़ती हुई पत्तियाँ
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− | आकाश नीला और स्वच्छ होगा
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− | नगर क्रेन के पट्टे में झूलता हुआ
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− | हम मोड़ पर मिलेंगे और
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− | एक दूसरे से ईर्ष्या करेंगे.
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− | रात जब युद्ध एक गीत पंक्ति की तरह
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− | प्रिय होगा हम वायलिन को
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− | रोते हुए सुनेंगे
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− | अपने टूटे संबंधों पर सोचेंगे
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− | दुःखी होंगे.
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− | 2 नगर-कथा
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− | सभी दुःखी हैं
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− | सबकी वीर्य-वाहिनी नलियाँ
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− | सायकिलों से रगड़-रगड़ कर
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− | पिंची हुई हैं
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− | दौड़ रहे हैं सब
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− | सम जड़त्व की विषम प्रतिक्रिया :
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− | सबकी आँखें सजल
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− | मुट्ठियाँ भिंची हुई हैं.
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− | व्यक्तित्वों की पृष्ठ-भूमि में
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− | तुमुल नगर-संघर्ष मचा है
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− | आदिम पर्यायों का परिचर
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− | विवश आदमी
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− | जहाँ बचा है.
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− | बौने पद-चिह्नों से अंकित
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− | उखड़े हुए मील के पत्थर
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− | मोड़-मोड़ पर दीख रहे हैं
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− | राहों के उदास ब्रह्मा-मुख
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− | ‘नेति-नेति' कह
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− | चीख रहे हैं.
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− | 3 गृहस्थी : चार आयाम
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− | मेरे सामने
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− | तुम सूर्य - नमस्कार की मुद्रा में
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− | खड़ी हो
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− | और मैं लज्जित-सा तुम्हें
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− | चुप-चाप देख रहा हूँ
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− | (औरत : आँचल है,
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− | जैसा कि लोग कहते हैं - स्नेह है,
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− | किन्तु मुझे लगता है-
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− | इन दोनों से बढ़कर
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− | औरत एक देह है)
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− | मेरी भुजाओं में कसी हुई
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− | तुम मृत्यु कामना कर रही हो
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− | और मैं हूँ-
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− | कि इस रात के अंधेरे में
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− | देखना चाहता हूँ - धूप का
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− | एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर
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− | रात की प्रतीक्षा में
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− | हमने सारा दिन गुजार दिया है
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− | और अब जब कि रात
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− | आ चुकी है
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− | हम इस गहरे सन्नाटे में
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− | बीमार बिस्तर के सिरहाने बैठकर
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− | किसी स्वस्थ क्षण की
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− | प्रतीक्षा कर रहे हैं
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− | न मैंने
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− | न तुमने
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− | ये सभी बच्चे
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− | हमारी मुलाकातों ने जने हैं
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− | हम दोनों तो केवल
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− | इन अबोध जन्मों के
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− | माध्यम बने हैं
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− | धूमिल की अंतिम कविता
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− | "शब्द किस तरह
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− | कविता बनते हैं
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− | इसे देखो
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− | अक्षरों के बीच गिरे हुए
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− | आदमी को पढ़ो
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− | क्या तुमने सुना की यह
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− | लोहे की आवाज है या
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− | मिट्टी में गिरे हुए खून
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− | का रंग"
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− | लोहे का स्वाद
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− | लोहार से मत पूछो
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− | उस घोड़े से पूछो
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− | जिसके मुँह में लगाम है.
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− | **-**
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− | (साभार - कविता संग्रह - कल सुनना मुझे, युगबोध प्रकाशन, वाराणसी, 1977)
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08:40, 26 फ़रवरी 2008 के समय का अवतरण
माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले
मैं सूखे सरोवर की हाँफ़ती मछली
इक लाल गुलाब की सूखी हुई कली
अपनी स्नेहमयी गंध मुझमें भर दे
माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले
लहूलुहान चिड़िया-सी यंत्रणा में हूँ
सोचती हूँ तेरी ख़ैरगाह में रहूँ
माँ तू मुझे बिम्ब अपना दे
माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले
भूल नहीं पाती मैं अपना व्यतीत
तेरे कंठ से फूटता पवित्र संगीत
मुझको तू अपनी हरीतिमा दे
माँ, प्यारी माँ
मुझे अपनी शरण में ले