भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"फूल / रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनकर }} {{KKCatKavita}} <poem> '''फूल''' अवनी के नक्षत्र! प्रकृति …)
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार!
 
उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार!
 
मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्‌भ्रान्त!
 
मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्‌भ्रान्त!
उर में म्चल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त!
+
उर में मचल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त!
 
वृन्तों के दीपाधारों पर झिलमिल ज्योति पसार,
 
वृन्तों के दीपाधारों पर झिलमिल ज्योति पसार,
आलोकित कर रहे जाज क्यों अमापूर्ण संसार?
+
आलोकित कर रहे आज क्यों अमापूर्ण संसार?
  
 
कहो, कहो, किन परियों को मुस्कानों में कर स्नान,
 
कहो, कहो, किन परियों को मुस्कानों में कर स्नान,
कहाँचन्द्रकिरणों में धुल-धुल बने दिव्य, अम्लान?
+
कहाँ चन्द्र किरणों में धुल-धुल बने दिव्य, अम्लान?
किस रुपहरी सरित में धो-धो किया वस्त्र प्रिधान
+
किस रुपहरी सरित में धो-धो किया वस्त्र परिधान
 
चले ज्योति के किस वन को हे परदेशी अनजान?
 
चले ज्योति के किस वन को हे परदेशी अनजान?
  
 
मलयानिल के मृदु झोंकों में तनिक सिहर झुक-झूल
 
मलयानिल के मृदु झोंकों में तनिक सिहर झुक-झूल
मन ही मन क्या सोच मौन रह जाते मेरे फूल?
+
मन-ही-मन क्या सोच मौन रह जाते मेरे फूल?
 
निज सौरभ से सुरभित, अपनी आभा में द्युतिमान,
 
निज सौरभ से सुरभित, अपनी आभा में द्युतिमान,
 
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर भूल पड़े छविमान!
 
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर भूल पड़े छविमान!
  
अपनी ही सुन्दरता पर विस्मित नव आँखें खॊल,
+
अपनी ही सुन्दरता पर विस्मित नव आँखें खोल,
 
हँसते झाँक-झाँक सरसी में निज प्रतिछाया लोल।
 
हँसते झाँक-झाँक सरसी में निज प्रतिछाया लोल।
 
रच-से रहे स्वर्ग भूतल पर लुटा मुक्त आनन्द,
 
रच-से रहे स्वर्ग भूतल पर लुटा मुक्त आनन्द,
 
कवि को स्वप्न, अनिल को सौरभ, अलि को दे मकरन्द।
 
कवि को स्वप्न, अनिल को सौरभ, अलि को दे मकरन्द।
  
नभ के तारे दूर, अलब इस अतल जलधि के सीप,
+
नभ के तारे दूर, अलभ इस अतल जलधि के सीप,
देव नहीं, हम मनु, इसी से, प्रिय तुम भीमि-प्रदीप।
+
देव नहीं, हम मनु, इसी से, प्रिय तुम भूमि-प्रदीप।
 
गत जीवन का व्यथा न भावी का हो चिन्ता-क्लेश,
 
गत जीवन का व्यथा न भावी का हो चिन्ता-क्लेश,
 
घाटी में रच दिया तुम्हीं से प्रभु ने मोहक देश।
 
घाटी में रच दिया तुम्हीं से प्रभु ने मोहक देश।
  
 
करो, करो, ऊषा के कंचन-सर में वारि-विहार,
 
करो, करो, ऊषा के कंचन-सर में वारि-विहार,
सू, रजनी के अंचल में सू, हे सुकुमार!
+
सोओ, रजनी के अंचल में सोओ, हे सुकुमार!
 
मादक! उफ! कितनी मादक है! ये कड़ियाँ, ये छन्द!
 
मादक! उफ! कितनी मादक है! ये कड़ियाँ, ये छन्द!
 
कुसुम, कहाँ जीवन में पाया यह अक्षय आनन्द?
 
कुसुम, कहाँ जीवन में पाया यह अक्षय आनन्द?
पंक्ति 44: पंक्ति 44:
 
क्या जानूँ जीवन में कैसा होता है आनन्द?
 
क्या जानूँ जीवन में कैसा होता है आनन्द?
 
उर की दैवी व्यथा कहाती जग में आज प्रलाप,
 
उर की दैवी व्यथा कहाती जग में आज प्रलाप,
कविता ही बन रही हाय! म्रे जीवन का शाप।
+
कविता ही बन रही हाय! मेरे जीवन का शाप।
  
 
आशा के इंगित पर घुमा दर-दर हाथ पसार,
 
आशा के इंगित पर घुमा दर-दर हाथ पसार,
पंक्ति 52: पंक्ति 52:
 
पल भर तो मधुमय उत्सव में सकूँ वेदना भूल,
 
पल भर तो मधुमय उत्सव में सकूँ वेदना भूल,
 
ऐसी हँसी हँसो, निशि-दिन हँसनेवाले ओ फूल!
 
ऐसी हँसी हँसो, निशि-दिन हँसनेवाले ओ फूल!
 
  
 
१९३३
 
१९३३
 
 
</poem>
 
</poem>

12:23, 27 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

फूल

अवनी के नक्षत्र! प्रकृति के उज्ज्वल मुक्ताहार!
उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार!
मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्‌भ्रान्त!
उर में मचल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त!
वृन्तों के दीपाधारों पर झिलमिल ज्योति पसार,
आलोकित कर रहे आज क्यों अमापूर्ण संसार?

कहो, कहो, किन परियों को मुस्कानों में कर स्नान,
कहाँ चन्द्र किरणों में धुल-धुल बने दिव्य, अम्लान?
किस रुपहरी सरित में धो-धो किया वस्त्र परिधान
चले ज्योति के किस वन को हे परदेशी अनजान?

मलयानिल के मृदु झोंकों में तनिक सिहर झुक-झूल
मन-ही-मन क्या सोच मौन रह जाते मेरे फूल?
निज सौरभ से सुरभित, अपनी आभा में द्युतिमान,
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर भूल पड़े छविमान!

अपनी ही सुन्दरता पर विस्मित नव आँखें खोल,
हँसते झाँक-झाँक सरसी में निज प्रतिछाया लोल।
रच-से रहे स्वर्ग भूतल पर लुटा मुक्त आनन्द,
कवि को स्वप्न, अनिल को सौरभ, अलि को दे मकरन्द।

नभ के तारे दूर, अलभ इस अतल जलधि के सीप,
देव नहीं, हम मनु, इसी से, प्रिय तुम भूमि-प्रदीप।
गत जीवन का व्यथा न भावी का हो चिन्ता-क्लेश,
घाटी में रच दिया तुम्हीं से प्रभु ने मोहक देश।

करो, करो, ऊषा के कंचन-सर में वारि-विहार,
सोओ, रजनी के अंचल में सोओ, हे सुकुमार!
मादक! उफ! कितनी मादक है! ये कड़ियाँ, ये छन्द!
कुसुम, कहाँ जीवन में पाया यह अक्षय आनन्द?

जग के अकरुण आघातों से जर्जर मेरा तन है,
आँसू, दर्द, वेदना से परिपूरित यह जीवन है।
सूख चुका कब का मेरी कलिकाओं का मकरंद,
क्या जानूँ जीवन में कैसा होता है आनन्द?
उर की दैवी व्यथा कहाती जग में आज प्रलाप,
कविता ही बन रही हाय! मेरे जीवन का शाप।

आशा के इंगित पर घुमा दर-दर हाथ पसार,
पर, अंजलि में दिया किसी ने भी न तृप्ति-उपहार।
इस लघु जीवन के कण-कण में लेकर हाहाकार
सुन्दरता पर भूल खड़ा हूँ सुमन! तुम्हारे द्वार।
पल भर तो मधुमय उत्सव में सकूँ वेदना भूल,
ऐसी हँसी हँसो, निशि-दिन हँसनेवाले ओ फूल!

१९३३