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"वृक्ष हूं इसलिये/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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वृक्ष हूं इसलिये जानता सत्य हूं,
 
वृक्ष हूं इसलिये जानता सत्य हूं,
 
घुल गया आज कितना हवा में जहर।
 
घुल गया आज कितना हवा में जहर।
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लूटते मित्र को पा अंधेरा घना  
 
लूटते मित्र को पा अंधेरा घना  
 
बैठ सुनते उजाले उसी से व्यथा,
 
बैठ सुनते उजाले उसी से व्यथा,
 
राम का राज्य बनना इसे था मगर  
 
राम का राज्य बनना इसे था मगर  
रावणों की यहंा पल रही है कथा,
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रावणों की यहा पल रही है कथा,
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देखकर सोचता हूं ,लुटे मित्र को,
 
देखकर सोचता हूं ,लुटे मित्र को,
 
मच गया आज कितना यहां पर कहर।
 
मच गया आज कितना यहां पर कहर।
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थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
 
थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
 
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
 
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
जनकी के सुभग देश में किस तरह
+
जानकी के सुभग देश में किस तरह
घट रही रोज ही यह नयी त्रासदी,
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घट रही हैं अशुभ यह नयी त्रासदी,
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स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
 
स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
 
सो गया आज कितना हमारा शहर।
 
सो गया आज कितना हमारा शहर।
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घेर कर मार डाला गया छांव में  
 
घेर कर मार डाला गया छांव में  
एक अभिमन्यु मेरी नजर के सामने,
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एक अभिमन्यु मेरी नजर सामने,
 
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
 
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
 
कांपते पल घृणा की हदें नापते,
 
कांपते पल घृणा की हदें नापते,
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फट गया है हृदय दर्द से रात का,  
 
फट गया है हृदय दर्द से रात का,  
रह गया है आज कितना ठगा हर पहर।
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रह गया आज कितना ठगा हर पहर।
 
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22:31, 5 मार्च 2012 के समय का अवतरण

वृक्ष हूं इसलिये

वृक्ष हूं इसलिये जानता सत्य हूं,
घुल गया आज कितना हवा में जहर।

लूटते मित्र को पा अंधेरा घना
बैठ सुनते उजाले उसी से व्यथा,
राम का राज्य बनना इसे था मगर
रावणों की यहा पल रही है कथा,

देखकर सोचता हूं ,लुटे मित्र को,
मच गया आज कितना यहां पर कहर।

थाम कर चन्द सिक्के स्वयं हाथ में
लाज अपनी लुटाकर गयी द्रोपदी,
जानकी के सुभग देश में किस तरह
घट रही हैं अशुभ यह नयी त्रासदी,

स्वर सुनायी नहीं दे रहे रोष के,
सो गया आज कितना हमारा शहर।

घेर कर मार डाला गया छांव में
एक अभिमन्यु मेरी नजर सामने,
रक्त से भीगते रह गये वक्त के
कांपते पल घृणा की हदें नापते,

फट गया है हृदय दर्द से रात का,
रह गया आज कितना ठगा हर पहर।