"मई का एक दिन / अरुण कमल" के अवतरणों में अंतर
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मैं टहल रहा था गर्मी की धूप में-- | मैं टहल रहा था गर्मी की धूप में-- | ||
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टहल रहा था अशॊक के पेड़ की तरह बदलता | टहल रहा था अशॊक के पेड़ की तरह बदलता | ||
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अतल ताप को हरे रंग में । | अतल ताप को हरे रंग में । | ||
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वह कोई दिन था मई के महीने का | वह कोई दिन था मई के महीने का | ||
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जब वियतनाम सीढ़ियों पर बैठा | जब वियतनाम सीढ़ियों पर बैठा | ||
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पोंछ रहा था | पोंछ रहा था | ||
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ख़ून और घावों से पटा शरीर, | ख़ून और घावों से पटा शरीर, | ||
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कम्बोडिया जलती सिकड़ियाँ खोलता | कम्बोडिया जलती सिकड़ियाँ खोलता | ||
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गृहप्रवेश की तैयारियों में व्यस्त था | गृहप्रवेश की तैयारियों में व्यस्त था | ||
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और नीला आकाश ताल ताल में | और नीला आकाश ताल ताल में | ||
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फेंक रहा था अपनी शाखें । | फेंक रहा था अपनी शाखें । | ||
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ऎसा ही दिन था वह मई के महीने का | ऎसा ही दिन था वह मई के महीने का | ||
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जब भविष्य की तेज़ धार मेरे चेहरे को | जब भविष्य की तेज़ धार मेरे चेहरे को | ||
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तृप्त कर रही थी-- | तृप्त कर रही थी-- | ||
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तुमने, वियतनाम, तुमने मुझे दी थी वह ताकत | तुमने, वियतनाम, तुमने मुझे दी थी वह ताकत | ||
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कम्बोडिया, तुमने, तुमने मुझे दी थी वह हिम्मत | कम्बोडिया, तुमने, तुमने मुझे दी थी वह हिम्मत | ||
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कि मैं भविष्य से कुछ बातें करता | कि मैं भविष्य से कुछ बातें करता | ||
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टहल रहा था-- | टहल रहा था-- | ||
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क्या हुआ जो मैं बहुत हारा था | क्या हुआ जो मैं बहुत हारा था | ||
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बहुत खोया था | बहुत खोया था | ||
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और मेरा परिवार तकलीफ़ों में ग़र्क था | और मेरा परिवार तकलीफ़ों में ग़र्क था | ||
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जब तुम जीते तब मैं भी जीता था । | जब तुम जीते तब मैं भी जीता था । | ||
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मैं रुक गया एक पेड़ के नीचे | मैं रुक गया एक पेड़ के नीचे | ||
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और ताव फेंकती, झुलसी हुई धरती को देखा-- | और ताव फेंकती, झुलसी हुई धरती को देखा-- | ||
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मैंने चाक पर रखी हुई ढलती हुई धरती को देखा; | मैंने चाक पर रखी हुई ढलती हुई धरती को देखा; | ||
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और टहलता रहा | और टहलता रहा | ||
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टहलता रहा गर्मी की धूप में... | टहलता रहा गर्मी की धूप में... | ||
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12:55, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मैं टहल रहा था गर्मी की धूप में--
टहल रहा था अशॊक के पेड़ की तरह बदलता
अतल ताप को हरे रंग में ।
वह कोई दिन था मई के महीने का
जब वियतनाम सीढ़ियों पर बैठा
पोंछ रहा था
ख़ून और घावों से पटा शरीर,
कम्बोडिया जलती सिकड़ियाँ खोलता
गृहप्रवेश की तैयारियों में व्यस्त था
और नीला आकाश ताल ताल में
फेंक रहा था अपनी शाखें ।
ऎसा ही दिन था वह मई के महीने का
जब भविष्य की तेज़ धार मेरे चेहरे को
तृप्त कर रही थी--
तुमने, वियतनाम, तुमने मुझे दी थी वह ताकत
कम्बोडिया, तुमने, तुमने मुझे दी थी वह हिम्मत
कि मैं भविष्य से कुछ बातें करता
टहल रहा था--
क्या हुआ जो मैं बहुत हारा था
बहुत खोया था
और मेरा परिवार तकलीफ़ों में ग़र्क था
जब तुम जीते तब मैं भी जीता था ।
मैं रुक गया एक पेड़ के नीचे
और ताव फेंकती, झुलसी हुई धरती को देखा--
मैंने चाक पर रखी हुई ढलती हुई धरती को देखा;
और टहलता रहा
टहलता रहा गर्मी की धूप में...