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(नया पृष्ठ: जब पुनमको चुरा खस्यो मेरो मनको चुचुरा खस्यो । फूलको धारले नै रेट…)
 
 
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'''डॉ.आलोक रंजन|'''[[
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== कड़ी शीर्षक ==
  
  
जब पुनमको चुरा खस्यो
 
मेरो मनको चुचुरा खस्यो ।
 
  
फूलको धारले नै रेट्न थालेपछि
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'''== सृजक =
उनको मनको छुरा खस्यो ।
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पथराई आँखों के भीतर वह  भाव  ढूँढता फिरता है ,
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मृदा शिला में भी जीवन का आधार ढूँढता रहता है |
  
पोको पारेर राखेको ठाउँबाट
 
आज अचानक कुरा खस्यो ।
 
  
सपनाको चखेवा खेलाउँदै थिएँ
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कवि हो या हो कृषक ,मरुभूमि हो या हो मिथक ,
विपनाको झ्वाम्म च्याखुरा खस्यो ।
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निर्विकार को आकार-बंध,शिल्पी की निजता है |
  
फुलाउँदा फुलाउँदै मायाको फूल
 
बसन्तमै मनको आँकुरा खस्यो ।
 
  
भमराहरु झुमुन् भन्थेँ वरिपरि
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मेरे ही  गीतों की धुन पर केशव तुमने  रास रचाया ,
मनको चाकामा माकुरा खस्यो ।
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मेरे ही कपास के सूतों से तुमने कृष्णा की लाज बचाया  |
  
राधा, रुक्मिणी र मीराहरु नसोच्दै
 
मनमा अचानक मथुरा खस्यो ।
 
  
अग्लिदै थिएँ आकासको हिमाल
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उसी चीर के आँचल को बेच –बेच मैंने ब्याज चुकाया ,
आफनै मनको टाकुरा खस्यो ।
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बुरा न मानो माधव ! तुमने मित्रता धर्म नहीं  निभाया|
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तुम स्रष्टा हो ,तुम हो पूजित ,माखन पर अधिकार तुम्हारा ,
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तुम संबल हो ,कभी शेष को ,और कभी भूधर को क्षत्र बनाया |
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माता का लहू पीकर हमने मुरलीधर ,गोवर्धन को मूर्त उतारा,
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भूख से मेरा बालक तरसे ,तुमने छप्पन भोग लगाया ?
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माना तुम लीलाधर हो,अंतर्यामी! जग भी तेरी माया है ,
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तेरे दीप-पात्र में जलता मेरा लहू क्यों है ,गलती मेरी काया है?
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तुम हो स्रष्टा ,लक्ष्मीपति तुम ,महलों के अधिकारी हो ,
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मैं हूँ सृजक धान्य-धन का नहीं ,बस सपनों का व्यापारी हूँ |
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कभी सूर बन अन्ध कूप से मैंने तेरा ही गान किया ,
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मीरा बन कभी ,मुरारी!,हलाहल का पान किया |
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ठाकुर!बाल-सखा के लाए धान्य ,जिसने स्वयं ब्रह्म को तृप्त किया ,
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उसे उगाने हेतु हमने ,ह्रदय चीर अपने लहू कोष को रिक्त किया |
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समर मध्य जब पृथा –पुत्र क्लीव सा मोह –पाश में भरमाया ,
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क्षात्र धर्म रक्षित करने हित,मोह –बंध खंडित करने हित –
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मोहन! तुमने धर्म-नीति रक्षा हेतु ,भारत को विश्वरूप था दिखलाया|
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सरसों के पीले फूलों में ,उसे देखता रहता मैं नित |
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भूमंडल को अपनी इच्छा से तुमने युगों-युगों अगिनत बार बसाया है ,
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वासुदेव!गीली मिट्टी में तुम्हे,बसाने शिल्पी ने ,अविरल चाक घुमाया है !
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सृष्टि का संहार-सृजन तुम्हारी माया के आधीन,निजता का संचार मात्र ,
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मिट्टी को सिंचित करता मेरा लहू–स्वेद,तपने की अग्नि- भूखे-बच्चों का करुण आत्र|
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== सृजक और स्रष्टा(द्वितीय आयाम ) ==
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सुवामा ==
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सुवामा शक्ति स्वयं ,या किसी अपर शक्ति के आधीन ?
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हे राम! जनक-सुता का  सार्वभौम से यह  प्रश्न अति प्राचीन !
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नारी मात्र कौशल्या हो या स्वयं ब्रम्ह की छाया?
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युगों-युगों से जलती आयी वैदेही की काया !
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मायापति को मूर्त रूप देती जिस नारी की कोख |
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आश्रय होता उसका स्वयं निविड़ वाटिका अशोक !
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रावण के कृत्यों का अबला क्यों अपराध सहे?
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अग्निसाक्षी निरपराध  क्यों अग्नि-देव के चरण गहे?
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विलासी इंद्र के अपकर्म से अहिल्या आज भी स्तब्ध है |
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शील न लुट जाये ,इस भय से मानवी शिला बनी निःशब्द है|
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लक्ष्मण रेखा के आगे लांछा की ज्वाला है ,भीतर है धर्म प्रलाप,
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जलती केवल नारी ,भीतर –बाहर उस रेखा करती विह्वल रौद्र अलाप|
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भरी सभा में अग्नि-प्रगटा धर्मराज का व्यसन मोल चुकाती है,
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पुरुषोत्तम की मर्यादा हित भू-कन्या भूमि का आश्रय पाती है|
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कुरुभूमि में पार्थ प्रिय गाण्डीव जिसकी  प्रत्यंचा थी  पांचाली के केश,
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भीम सना था रक्त सुज्जजित ,पांचाली से अधिक उसे था कुल –मर्यादा का क्लेश |
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पांडू-सुतों को सुयोधन ,अगर समर्पित कर देता पांच गाँव |
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उन्हें सताती याद कहाँ पांचाली के ह्रदय के हरे घाव |
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रुधिर पिला कर पालन करती लघुता को सुवरिष्ट,तब स्रष्टा पूजे जाते हैं |
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सृजक जब सितकेशी हो ,प्रवया हो ,साकल्य छीन अंचल का न्यास चुकाते हैं !
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03:12, 10 जून 2012 के समय का अवतरण

डॉ.आलोक रंजन|[[

कड़ी शीर्षक

== सृजक = पथराई आँखों के भीतर वह भाव ढूँढता फिरता है , मृदा शिला में भी जीवन का आधार ढूँढता रहता है |


कवि हो या हो कृषक ,मरुभूमि हो या हो मिथक , निर्विकार को आकार-बंध,शिल्पी की निजता है |


मेरे ही गीतों की धुन पर केशव तुमने रास रचाया , मेरे ही कपास के सूतों से तुमने कृष्णा की लाज बचाया |


उसी चीर के आँचल को बेच –बेच मैंने ब्याज चुकाया , बुरा न मानो माधव ! तुमने मित्रता धर्म नहीं निभाया|


तुम स्रष्टा हो ,तुम हो पूजित ,माखन पर अधिकार तुम्हारा , तुम संबल हो ,कभी शेष को ,और कभी भूधर को क्षत्र बनाया |


माता का लहू पीकर हमने मुरलीधर ,गोवर्धन को मूर्त उतारा, भूख से मेरा बालक तरसे ,तुमने छप्पन भोग लगाया ?


माना तुम लीलाधर हो,अंतर्यामी! जग भी तेरी माया है , तेरे दीप-पात्र में जलता मेरा लहू क्यों है ,गलती मेरी काया है?


तुम हो स्रष्टा ,लक्ष्मीपति तुम ,महलों के अधिकारी हो , मैं हूँ सृजक धान्य-धन का नहीं ,बस सपनों का व्यापारी हूँ |


कभी सूर बन अन्ध कूप से मैंने तेरा ही गान किया , मीरा बन कभी ,मुरारी!,हलाहल का पान किया |


ठाकुर!बाल-सखा के लाए धान्य ,जिसने स्वयं ब्रह्म को तृप्त किया , उसे उगाने हेतु हमने ,ह्रदय चीर अपने लहू कोष को रिक्त किया |


समर मध्य जब पृथा –पुत्र क्लीव सा मोह –पाश में भरमाया , क्षात्र धर्म रक्षित करने हित,मोह –बंध खंडित करने हित –


मोहन! तुमने धर्म-नीति रक्षा हेतु ,भारत को विश्वरूप था दिखलाया| सरसों के पीले फूलों में ,उसे देखता रहता मैं नित |


भूमंडल को अपनी इच्छा से तुमने युगों-युगों अगिनत बार बसाया है , वासुदेव!गीली मिट्टी में तुम्हे,बसाने शिल्पी ने ,अविरल चाक घुमाया है !


सृष्टि का संहार-सृजन तुम्हारी माया के आधीन,निजता का संचार मात्र , मिट्टी को सिंचित करता मेरा लहू–स्वेद,तपने की अग्नि- भूखे-बच्चों का करुण आत्र|


सृजक और स्रष्टा(द्वितीय आयाम )

== सुवामा ==

सुवामा शक्ति स्वयं ,या किसी अपर शक्ति के आधीन ? हे राम! जनक-सुता का सार्वभौम से यह प्रश्न अति प्राचीन !


नारी मात्र कौशल्या हो या स्वयं ब्रम्ह की छाया? युगों-युगों से जलती आयी वैदेही की काया !


मायापति को मूर्त रूप देती जिस नारी की कोख | आश्रय होता उसका स्वयं निविड़ वाटिका अशोक !


रावण के कृत्यों का अबला क्यों अपराध सहे? अग्निसाक्षी निरपराध क्यों अग्नि-देव के चरण गहे?

विलासी इंद्र के अपकर्म से अहिल्या आज भी स्तब्ध है | शील न लुट जाये ,इस भय से मानवी शिला बनी निःशब्द है|


लक्ष्मण रेखा के आगे लांछा की ज्वाला है ,भीतर है धर्म प्रलाप, 

जलती केवल नारी ,भीतर –बाहर उस रेखा करती विह्वल रौद्र अलाप|

भरी सभा में अग्नि-प्रगटा धर्मराज का व्यसन मोल चुकाती है, पुरुषोत्तम की मर्यादा हित भू-कन्या भूमि का आश्रय पाती है|

कुरुभूमि में पार्थ प्रिय गाण्डीव जिसकी प्रत्यंचा थी पांचाली के केश, भीम सना था रक्त सुज्जजित ,पांचाली से अधिक उसे था कुल –मर्यादा का क्लेश |

पांडू-सुतों को सुयोधन ,अगर समर्पित कर देता पांच गाँव | उन्हें सताती याद कहाँ पांचाली के ह्रदय के हरे घाव |

रुधिर पिला कर पालन करती लघुता को सुवरिष्ट,तब स्रष्टा पूजे जाते हैं | सृजक जब सितकेशी हो ,प्रवया हो ,साकल्य छीन अंचल का न्यास चुकाते हैं !