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"होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
 
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अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया
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पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।2।
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कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका
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कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।3।
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वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर
  
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे
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शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।4।
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हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर
  
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप
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लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।5।
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शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर
  
  
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जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
 
जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर ।1।
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पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर
  
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है
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ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर ।2।
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हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर
  
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई
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भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर ।3।
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महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर
  
पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
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पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर ।4।
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पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर
  
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम
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शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर ।5।
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हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर
 
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11:58, 18 मार्च 2011 के समय का अवतरण

(ये दोनों ही ग़ज़लें 1975 में ’धर्मयुग’ के होली-अंक में प्रकाशित हुई थीं।)

दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया,
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।

कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे,
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।


धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का उत्तर बक़लम दुष्यंत कुमार)


जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर ।

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर ।

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर ।

पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर ।

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर ।