भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बल्ली बाई / अंजना बख्शी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंजना बक्शी }} {{KKCatKavita‎}} <poem> दाल भात और पोदीने की चटन…)
 
छो (बल्ली बाई / अंजना बक्शी का नाम बदलकर बल्ली बाई / अंजना बख्शी कर दिया गया है)
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
 
दाल भात और पोदीने की चटनी से  
 
दाल भात और पोदीने की चटनी से  
भरी थाली आती हैं जब याद, तो हो  
+
भरी थाली आती हैं जब याद
उठता है ताज़ा बल्ली बाई के घर का  
+
तो हो उठता है ताज़ा  
वो आँगन और चूल्हें पर हमारे लिए  
+
बल्ली बाई के घर का वो आँगन  
 +
और चूल्हे पर हमारे लिए  
 
पकता दाल–भात !
 
पकता दाल–भात !
 
   
 
   
 
दादा अक्सर जाली-बुना करते थे  
 
दादा अक्सर जाली-बुना करते थे  
मछली पकड़ने के लिए पूरी तन्मयता से,
+
मछली पकड़ने के लिए पूरी तन्मयता से,
रेडियों के साथ, चलती रहती थी  
+
रेडियों के साथ चलती रहती थी  
उनकी उँगलियँ और झाडू बुहारकर  
+
उनकी उँगलियाँ
सावित्री दी, हमारे लिए बिछा दिया  
+
और झाडू बुहारकर सावित्री दी  
करती दरी से बनी गुदड़ी और  
+
हमारे लिए बिछा दिया करती दरी से बनी गुदड़ी और  
 
सामने रख देती बल्ली बाई
 
सामने रख देती बल्ली बाई
चुरे हुए भात और उबली दाल के  
+
चुरे हुए<ref>उबले हुए</ref> भात और उबली दाल के  
 
साथ पोदीने की चटनी
 
साथ पोदीने की चटनी
 
   
 
   
 
एक-एक निवाला अपने
 
एक-एक निवाला अपने
खुरदरे हाथो से खिलाती जिन हाथों से  
+
खुरदरे हाथो से खिलाती  
 +
जिन हाथों से  
 
वो घरों में माँजती थी बर्तन  
 
वो घरों में माँजती थी बर्तन  
 
कितना ममत्व था उन हाथों के  
 
कितना ममत्व था उन हाथों के  
पंक्ति 31: पंक्ति 33:
 
उस रोज़,
 
उस रोज़,
 
बल्ली बाई चल बसी और
 
बल्ली बाई चल बसी और
संग में उसकी वो दाल–भात की  
+
संग में उसकी वो दाल–भात की थाली
थाली और फटे खुरदरे हाथों  
+
और फटे खुरदरे हाथों की महक !!     
की महक !!     
+
 
</poem>
 
</poem>
 +
{{KKMeaning}}

21:34, 6 जुलाई 2011 के समय का अवतरण

दाल भात और पोदीने की चटनी से
भरी थाली आती हैं जब याद
तो हो उठता है ताज़ा
बल्ली बाई के घर का वो आँगन
और चूल्हे पर हमारे लिए
पकता दाल–भात !
 
दादा अक्सर जाली-बुना करते थे
मछली पकड़ने के लिए पूरी तन्मयता से,
रेडियों के साथ चलती रहती थी
उनकी उँगलियाँ
और झाडू बुहारकर सावित्री दी
हमारे लिए बिछा दिया करती दरी से बनी गुदड़ी और
सामने रख देती बल्ली बाई
चुरे हुए<ref>उबले हुए</ref> भात और उबली दाल के
साथ पोदीने की चटनी
 
एक-एक निवाला अपने
खुरदरे हाथो से खिलाती
जिन हाथों से
वो घरों में माँजती थी बर्तन
कितना ममत्व था उन हाथों के
स्पर्श में,
नही मिलता जो अब कभी
राजधानी में !

उस रोज़,
बल्ली बाई चल बसी और
संग में उसकी वो दाल–भात की थाली
और फटे खुरदरे हाथों की महक !!

शब्दार्थ
<references/>