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"चांद की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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जैसे ही हम चांद की तरफ़ देखने को होते हैं कहीं पास से एक कुत्ते
 
जैसे ही हम चांद की तरफ़ देखने को होते हैं कहीं पास से एक कुत्ते
 
 
के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है. हम उसे खोजने लगते हैं जबकि
 
के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है. हम उसे खोजने लगते हैं जबकि
 
 
चांद हमारे ठीक सामने चमक रहा होता है आइने की तरह इतना
 
चांद हमारे ठीक सामने चमक रहा होता है आइने की तरह इतना
 
 
साफ़ कि हम उसमें अपने चेहरे के गड्ढे और धब्बे भी क़रीब क़रीब
 
साफ़ कि हम उसमें अपने चेहरे के गड्ढे और धब्बे भी क़रीब क़रीब
 
 
देख सकते हैं . जब हमारे दिमाग़ दर्द कर रहे होते हैं वह हमारे ठीक
 
देख सकते हैं . जब हमारे दिमाग़ दर्द कर रहे होते हैं वह हमारे ठीक
 
 
ऊपर चमक रहा होता है प्रेमियों को घरों से निकालकर अज्ञात जगहों  
 
ऊपर चमक रहा होता है प्रेमियों को घरों से निकालकर अज्ञात जगहों  
 
 
में भटकाता रात को असंख्य झरनों की शक्ल में चारों ओर से बहाता  
 
में भटकाता रात को असंख्य झरनों की शक्ल में चारों ओर से बहाता  
 
 
हुआ. शमशेर जैसे कवि ने इस ऎतिहासिक चांद से कुछ देर बातें भी
 
हुआ. शमशेर जैसे कवि ने इस ऎतिहासिक चांद से कुछ देर बातें भी
 
 
की हैं.
 
की हैं.
 
  
 
जो लोग चांद को सभी पहलुओं से जान चुके हैं उन्हें सबसे पहला  
 
जो लोग चांद को सभी पहलुओं से जान चुके हैं उन्हें सबसे पहला  
 
 
एहसास उसकी चमक के ख़त्म होने का हुआ. उन्होंने बारीक़ी से चांद
 
एहसास उसकी चमक के ख़त्म होने का हुआ. उन्होंने बारीक़ी से चांद
 
 
की मिट्टी की जाँच की और उसे अपने पास सुरक्षित रख लिया. लेकिन
 
की मिट्टी की जाँच की और उसे अपने पास सुरक्षित रख लिया. लेकिन
 
 
चांद के बारे में अब भी बच्चे कहीं ज़्यादा जानते हैं. जैसे ही कहीं
 
चांद के बारे में अब भी बच्चे कहीं ज़्यादा जानते हैं. जैसे ही कहीं
 
 
कुत्ते का भौंकना सुनाई देता है वे आसमान की ओर इशारा करके
 
कुत्ते का भौंकना सुनाई देता है वे आसमान की ओर इशारा करके
 
 
कहते हैं : देखो चांद चांद.
 
कहते हैं : देखो चांद चांद.
 
 
  
 
(रचनाकाल : 1989)
 
(रचनाकाल : 1989)
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17:42, 12 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

जैसे ही हम चांद की तरफ़ देखने को होते हैं कहीं पास से एक कुत्ते
के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती है. हम उसे खोजने लगते हैं जबकि
चांद हमारे ठीक सामने चमक रहा होता है आइने की तरह इतना
साफ़ कि हम उसमें अपने चेहरे के गड्ढे और धब्बे भी क़रीब क़रीब
देख सकते हैं . जब हमारे दिमाग़ दर्द कर रहे होते हैं वह हमारे ठीक
ऊपर चमक रहा होता है प्रेमियों को घरों से निकालकर अज्ञात जगहों
में भटकाता रात को असंख्य झरनों की शक्ल में चारों ओर से बहाता
हुआ. शमशेर जैसे कवि ने इस ऎतिहासिक चांद से कुछ देर बातें भी
की हैं.

जो लोग चांद को सभी पहलुओं से जान चुके हैं उन्हें सबसे पहला
एहसास उसकी चमक के ख़त्म होने का हुआ. उन्होंने बारीक़ी से चांद
की मिट्टी की जाँच की और उसे अपने पास सुरक्षित रख लिया. लेकिन
चांद के बारे में अब भी बच्चे कहीं ज़्यादा जानते हैं. जैसे ही कहीं
कुत्ते का भौंकना सुनाई देता है वे आसमान की ओर इशारा करके
कहते हैं : देखो चांद चांद.

(रचनाकाल : 1989)