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दवाओं की शीशियाँ खाली पड़ी हैं लिफ़ाफ़े फटे हुए हैं चिट्ठियाँ पढ़ी
 
जा चुकी हैं अब तुम दहलीज़ पर बैठे इंतज़ार नहीं करते बिस्तर में
 
सिकुड़े नहीं पड़े रहते सुबह उठकर दरवाज़े नहीं खोलते तुम हवा पानी
 
और धूल के अदृश्य दरवाज़ों को खोलते हुए किसी पहाड़ नदी और
 
तारों की ओर चले गये हो ख़ुद एक पहाड़ एक नदी एक तारा बनने
 
के लिए.
 
तुम कितनी आसानी से शब्दों के भीतर आ जाते थे. दुबली सूखती
 
तुन्हारी काया में दर्द का अण्त नहीं था और उम्मीद अन्त तक बची
 
हुई थी. धीरे-धीरे टूटती दीवारों के बीच तुम पत्थरों की अमरता खोज
 
लेते थे. ख़ाली डिब्बों फटी हुई किताबों और घुन लगी चीज़ों में जो
 
जीवन बचा हुआ था उस पर तुम्हें विश्वास था. जब मैं लौटता तुम
 
उनमें अपना दुख छिपा लेते थे. सारी लड़ाई तुम लड़ते थे जीतता सिर्फ़
 
मैं था.
 
(रचनाकाल : 1992)
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