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"छाया मत छूना / गिरिजाकुमार माथुर" के अवतरणों में अंतर

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छाया मत छूना मन
 
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होता है दुख दूना मन  
 
होता है दुख दूना मन  
  
 
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
 
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
 
 
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
 
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
 
 
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
 
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
 
 
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
 
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
  
 
भूली-सी एक छुअन  
 
भूली-सी एक छुअन  
 
 
बनता हर जीवित क्षण
 
बनता हर जीवित क्षण
 
 
छाया मत छूना मन
 
छाया मत छूना मन
 
 
होगा दुख दूना मन  
 
होगा दुख दूना मन  
 
 
  
 
यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
 
यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
 
 
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
 
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
 
 
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,
 
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,
 
 
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।
 
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।
  
 
जो है यथार्थ कठिन  
 
जो है यथार्थ कठिन  
 
 
उसका तू कर पूजन-
 
उसका तू कर पूजन-
 
 
छाया मत छूना मन
 
छाया मत छूना मन
 
 
होगा दुख दूना मन  
 
होगा दुख दूना मन  
 
  
 
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
 
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
 
 
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
 
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
 
 
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
 
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
 
 
क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
 
क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
  
 
जो न मिला भूल उसे  
 
जो न मिला भूल उसे  
 
 
कर तू भविष्‍य वरण,
 
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छाया मत छूना मन
 
छाया मत छूना मन
 
 
होगा दुख दूना मन
 
होगा दुख दूना मन
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12:19, 14 मार्च 2013 के समय का अवतरण

छाया मत छूना मन
होता है दुख दूना मन

जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।

भूली-सी एक छुअन
बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन

यश है न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।

जो है यथार्थ कठिन
उसका तू कर पूजन-
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन

दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे
कर तू भविष्‍य वरण,
छाया मत छूना मन
होगा दुख दूना मन